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[ तृतीय
कि अपुनर्बन्धक जीवों अर्थात् भव्यजीवों को चैत्यवन्दन विधि में अत्यधिक
पुरुषार्थ करना चाहिए ।। १४ ।।
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पञ्चाशकप्रकरणम्
हानिरिति ।
छेदकरः ।। १५ ।।
चैत्यवन्दन से इहलौकिक लाभ पायं इमीऍ जत्ते ण होइ इहलोगियावि णिरुवक्कमभावाओ भावोऽवि हु तीइ प्रायोऽस्यां यत्ने न भवति इहलौकिकापि निरुपक्रमभावाद् भावोऽपि खलु तस्याः चैत्यवन्दन - विधि में सावधानी रखने से प्रायः इस लोक में भी धनधान्य आदि की हानि नहीं होती है और यदि निरुपक्रम कर्म के उदय से इस लोक में हानि हो तो भी वह सद्भावों की नाशक नहीं होती है अर्थात् निरुपक्रम के उदय से हानि हो तो भी उस हानि में दीनता, द्वेष, चिन्ता, व्याकुलता और भय आदि का अभाव होता है, इस प्रकार कर्मों की कमी तथा आध्यात्मिक प्रसन्नता होने से परलोक की वैसी हानि नहीं होती है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त होता है ।। १५ ।।
पसिद्धं ।
अन्य धर्मों में भी चैत्यवन्दन की महत्ता मोक्खद्धदुग्गगहणं एयं तं सेसगाणवि भावेयव्वमिणं खलु सम्मति कयं मोक्षाध्वदुर्गग्रहणमेतत् तत् शेषकाणामपि भावयितव्यमिदं खलु सम्यगिति कृतं
पसंगेणं ।। १६ ।। प्रसिद्धम् ।
प्रसङ्गेन ।। १६ ।।
अन्य धर्मों में भी मोक्षमार्ग में दुर्ग की प्राप्ति के समान अर्थात् मार्ग में वर आदि से रक्षण के लिए किला आदि का आश्रय लेने के समान जो प्रसिद्ध है वह भाव चैत्यवन्दन अर्थात् प्रभु भक्ति है, क्योंकि भाव चैत्यवन्दन ही कर्मरूपी शत्रुओं से रक्षा करने में समर्थ है इस पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए । अन्य धर्मावलम्बियों ने कहा है, इसलिए गलत है ऐसा मानकर उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अन्य धर्मावलम्बी भी हर विषय में असत्य नहीं होते। इस प्रकार यहाँ भाव चैत्यवन्दन की लक्षण सम्बन्धी विचारणा सम्यग्रूपेण की
गयी ।। १६ ।।
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हाणित्ति ।
छेयकरो ॥ १५ ॥
सूत्र बोलने की मुद्रा का निर्देश
पंचंगो पणिवाओ थयपाढो होइ जोगमुद्दाए ।
वंदण जिणमुद्दाए पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ।। १७ ।।
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