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नहीं होता है, वह चैत्यवन्दना के सूत्रगत अर्थों पर भी विचार नहीं करता है, न वन्दनीय अर्हन्तों के प्रति उसको बहुमान होता है, न वह यह सोचकर आनन्दित होता है कि इस अनादि संसार में अर्हन्तों की वन्दना करने का अवसर प्राप्त हुआ है और न ही उसे संसार से अथवा वन्दना - विधि के स्खलन से भय होता है। लेकिन भाववन्दना करने वाला व्यक्ति द्रव्यवन्दना और भाववन्दना दोनों में ही उपर्युक्त लक्षणों से भिन्न लक्षणों वाला होता है। उसकी चैत्यवन्दना में सजगता होती है। वह वन्दना सूत्रों का मनन करता है तथा यह जानकर प्रफुल्लित होता है कि उसे इस अनादि संसार में अर्हन्तों के चरणकमलों की वन्दना करने का अवसर प्राप्त हुआ है और वह इस संसार से या वन्दना - विधि के स्खलन से भयभीत भी होता है ।। ९ ॥
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पञ्चाशकप्रकरणम्
अन्य प्रकार से द्रव्य एवं भाव- वन्दना के लक्षण वेलाइ विहाणम्मि य तग्गयचित्ताइणा य विण्णेओ । तव्वुडिभावऽभावेहिँ तह य दव्वेयरविसेसो ॥ १० ॥ वेलया विधाने च तद्रतचित्तादिना च विज्ञेयः । तद्वृद्धिभावाभावैः तथा च द्रव्येतरविशेषः ॥ १० ॥ काल, विधि और तद्गतचित्त आदि से तथा चैत्यवन्दनवृद्धि के भाव और अभाव से द्रव्यवन्दना और भाववन्दना में भेद है ।। १० ।।
भावार्थ : अर्थात् सूत्रोक्त नियत समय में चैत्यवन्दन करना, निसीहि त्रिक आदि से विधिपूर्वक चैत्यवन्दन करना, चैत्यवन्दन करते समय उसी में चित्त को लगाये रखना, चैत्यवन्दन में मनोभावों की वृद्धि के लिए सूत्रों को शुद्ध और शान्तिपूर्वक बोलना आदि भाववन्दना के लक्षण हैं। नियत समय पर चैत्यवन्दन नहीं करना, चैत्यवन्दन में चित्त नहीं लगाना, सूत्रों को जल्दी-जल्दी बोलकर पूरा कर देना आदि द्रव्यवन्दना के लक्षण हैं।
भाववन्दना की प्रधानता
सइ संजाओ भावो पायं भावंतरं जओ कुणइ ।
ता एयमेत्थ पवरं लिंगं सइ भाववुड्डी तु ॥ ११ ॥
सकृत् सञ्जातो भावः प्रायः भावान्तरं यतः करोति । तदेतदत्र प्रवरं लिङ्गं सकृद् भाववृद्धिस्तु ॥ ११ ॥
एक बार समुत्पन्न शुभभाव प्रायः नये शुभभाव को उत्पन्न करता है। इसलिए यहाँ भाव वृद्धि रूप चैत्यवन्दना के लक्षणों में सर्वदा भाव प्रधान लक्षण है ॥ ११ ॥
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