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________________ तृतीय] चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक जीव वन्दना के अधिकारी हैं, क्योंकि वे जीव द्रव्य-वन्दना करते-करते भाववन्दना करने वाले बन जाते हैं। इस प्रकार अपुनर्बन्धक जीवों की वन्दना द्रव्यवन्दना होने के बावजूद भी प्रधान द्रव्यवन्दना होने से वे चैत्य-वन्दन के अधिकारी हैं। जबकि मार्गाभिमुख इत्यादि जीवों की वन्दना अप्रधान है, क्योंकि वे द्रव्यवन्दना करते-करते भी भाववन्दना वाले नहीं होते हैं और उनके अशुभ कर्मों की अपेक्षित हानि भी नहीं होती है। इसलिए वे जीव भाववन्दना तो दूर द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं हैं अर्थात् चैत्यवन्दन के भी अधिकारी नहीं हैं ।। ७ ॥ सकृद्धन्धकादि जीवों में अप्रधान द्रव्यवन्दना का समर्थन ण य अपुणबन्धगाओ परेण इह जोग्गयावि जुत्तत्ति । ण य ण परेणवि एसा जमभव्वाणंपि णिद्दिट्ठा ।। ८ ।। न च अपुनर्बन्धकात् परेणेह योग्यताऽपि युक्तेति । न च न परेणापि एषा यद् अभव्यानामपि निर्दिष्टा ।। ८ ।। अपुनर्बन्धक से भिन्न सकृद्वन्धक भाववन्दना के योग्य नहीं समझे जाते हैं अर्थात् सकृद्वन्धकादि जीवों में साक्षात् भाववन्दन की मनोभूमिका तो नहीं ही है भाववन्दना की योग्यता भी नहीं है, क्योंकि उनका संसार बहुत होता है। शास्त्रों में सकृद्वन्धकादि जीवों के लिए द्रव्यवन्दना कही गयी है। इनके अतिरिक्त अभव्यों के लिए भी द्रव्यवन्दना कही गयी है। क्योंकि अभव्य जीव भी दीक्षा लेकर अनन्त बार ग्रैवेयक में उत्पन्न हुए हैं ।। ८॥ भावार्थ : शास्त्र में एक तरफ सकृद्वन्धक इत्यादि जीव द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं हैं - ऐसा कहा गया है, जबकि दूसरी तरफ उनको द्रव्यवन्दना होती है - ऐसा भी कहा गया है। उपलब्ध प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि उनमें प्रधान द्रव्यवन्दना की योग्यता नहीं होती, अपितु अप्रधान द्रव्यवन्दना की योग्यता होती है। यह अप्रधान द्रव्यवन्दना अभव्यों में भी होती है। द्रव्य-भाववन्दना के लक्षण लिंगा ण तिए भावो ण तयत्थालोयणं ण गुणरागो । णो विम्हओ ण भवभयमिय वच्चासो य दोण्हं पि ।। ९ ॥ लिङ्गानि न तस्यां भावो न तदर्थालोचनं न गुणरागः । न विस्मितो न भवभयमिति व्यत्यासश्च द्वयोरपि ।। ९ ।। द्रव्यवन्दना करने वाले व्यक्ति का चैत्यवन्दन में उपयोग (मनोभाव) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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