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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ तृतीय
शुश्रूषा धर्मरागो गुरुदेवानां यथासमाधिः । वैयावृत्ये नियमः सम्यग्दृष्टेर्लिङ्गानि ।। ५ ॥
सम्यग्दृष्टि व्यक्ति की पहचान यह है कि वह धर्मशास्त्रविषयक प्रवचनों को सुनने का इच्छुक होता है। धर्म के प्रति अनुरक्त रहता है। सम्यग्दृष्टि गुरुओं एवं अन्य आराध्य पुरुषों को जैसे समाधि हो वैसे उनकी सेवा में कर्तव्यपरायण होकर तत्पर रहता है ।। ५ ।।
देशविरत एवं सर्वविरत के लक्षण मग्गणुसारी सड्ढो पण्णवमणिज्जो कियापरो चेव । गुणरागी सक्कारंभसंगओ तह य चारित्ती ।। ६ ।। मार्गानुसारी श्राद्ध: प्रज्ञापनीय: क्रियापरः चैव । गुणरागी शक्यारम्भसङ्गतः तथा च चारित्री ॥ ६ ॥
देशविरत अथवा सर्वविरत व्यक्ति तत्त्वमार्ग का अनुसर्ता एवं उसके प्रति श्रद्धावान् होता है। सम्यग् मार्ग से विचलित होने पर उसको उपदेश दिया जा सकता है। वह मोक्षमार्ग की साधना करता है। अपने तथा दूसरों के गुणों के प्रति अनुराग रखता है, यथासम्भव धर्मकार्यों का सम्पादन करता है तथा चारित्रवान् होता है ।। ६ ।। अपुनर्बन्धकादि के अतिरिक्त दूसरे जीवों में चैत्यवन्दन की अयोग्यता
एते अहिगारिणो इह ण उ सेसा दव्वओवि जं एसा । एयरीएँ जोग्गयाए सेसाण उ अप्पहाणत्ति ॥ ७ ॥ एते अधिकारिण इह न तु शेषा द्रव्यतोऽपि यदेषा । इतरस्याः योग्यतायाः शेषाणां तु अप्रधाना इति ॥ ७ ॥
ये (अपुनर्बन्धक, अविरत-सम्यग्दृष्टि, देशविरत एवं सर्वविरत) ही इस चैत्य-वन्दन के अधिकारी होते हैं। शेष जो मार्गाभिमुख मिथ्यादृष्टि इत्यादि हैं वे इसके अधिकारी नहीं होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव तो द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी नहीं होते, क्योंकि द्रव्यवन्दना के भी अधिकारी वे ही होते हैं, जो भाववन्दना के लिए अपेक्षित योग्यता रखते हैं।
भावार्थ : द्रव्यवन्दना दो प्रकार की होती है-(१) प्रधान द्रव्यवन्दना और (२) अप्रधान द्रव्य-वन्दना। जो द्रव्य-वन्दना भाव-वन्दना का कारण बने वह प्रधान द्रव्य-वन्दना है एवं जो द्रव्य-वन्दना भाववन्दना का कारण न बने वह अप्रधान द्रव्य-वन्दना है। इसमें से प्रधान द्रव्य-वन्दना वाले
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