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तृतीय ]
चैत्यवन्दनविधि पञ्चाशक
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अथवाऽपि भावभेदाद् ओघेन अपुनर्बन्धकादीनाम् । सर्वाऽपि त्रिधा ज्ञेया शेषाणामियं न यत् समये ।। ३ ।।
पुन: अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरत और सर्वविरत के जघन्यादि परिणाम के भेद से वन्दन तीन प्रकार का जानना चाहिये अर्थात् अपुनर्बन्धक का चैत्यवन्दन करना जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में से कोई हो, जघन्य ही होता है - अपुनर्बन्धक जघन्य वन्दन करे तो वह वन्दन जघन्य तो है ही यदि वह मध्यम और उत्कृष्ट वन्दन करे तो भी वह जघन्य ही होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से उसके परिणामों की विशुद्धि कम होती है। अविरत सम्यग्दृष्टि का जघन्यादि तीन प्रकार का वन्दन मध्यम ही होता है, क्योंकि उसके परिणामों की विशुद्धि अपुनर्बन्धक से अधिक और देशविरति आदि से कम - इस प्रकार मध्यम होती है। देशविरत और सर्वविरत के जघन्यादि तीनों के प्रकार के वन्दन उत्कृष्ट ही होते हैं, क्योंकि अपुनर्बन्धक और अविरत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा इन दोनों के परिणाम अधिक विशुद्ध होते हैं। अथवा अपुनर्बन्धक आदि प्रत्येक के आधार पर भी वन्दना तीन प्रकार की हो सकती है, यथा - अपुनर्बन्धक जघन्यादि तीन प्रकार के वन्दन में से कोई भी वन्दन यदि मन्द उल्लास से करे तो वह वन्दन जघन्य होता है, यदि मध्यम उल्लास से करे तो मध्यम वन्दन और यदि उत्कृष्ट उल्लास से करे तो उत्कृष्ट वन्दन होता है। इसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत तथा सर्वविरत के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये ।। ३ ।।
अपुनर्बन्धक का लक्षण पावं ण तिव्वभावा कुणइ ण बहुमण्णई भवं घोरं । उचियट्ठियं च सेवइ सव्वत्थवि अपुणबंधोत्ति ।। ४ ।। पापं न तीव्रभावात् करोति न बहुमन्यते भवं घोरम् । . उचितस्थितिं च सेवते सर्वत्रापि अपुनर्बन्ध इति ।। ४ ।।
अपुनर्बन्धक जीव तीव्र संक्लेशभाव से कोई पाप नहीं करता और न ही वह इस बीभत्स संसार को अधिक मान्यता देता है। वह देश, काल और अवस्था की अपेक्षा से देव, अतिथि, माता-पिता आदि के साथ यथोचित व्यवहार करता है ।। ४ ॥
सम्यग्दृष्टि का लक्षण सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए । वेयावच्चे णियमो सम्मद्दिट्ठिस्स लिंगाई ।। ५ ॥
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