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द्वितीय ]
जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक
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आगम के अनुसार इस दीक्षाविधान का चिन्तन करने से भी व्यक्ति सकृद्बन्धक और अपुनर्बन्धक रूप कदाग्रह का जल्दी ही त्याग करता है। जो जीव यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त हो गया हो, लेकिन ग्रन्थि को नहीं तोड़े और फिर एक बार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करे तो वह सकृद्वन्धक है तथा जो जीव यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त हो गया हो, लेकिन उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करे
और ग्रन्थियों को तोड़े तो वह जीव अपुनर्बन्धक है। इन दोनों प्रकार के जीवों का जब तक ग्रन्थिभेद नहीं हुआ है, तब तक कदाग्रह की सम्भावना है, लेकिन अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों को कदाग्रह नहीं होता है । ४४ ।।
॥ इति जिनदीक्षाविधिर्नाम द्वितीयं पञ्चाशकम् ॥
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