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द्वितीय]
जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक
३३
लक्षण दिखलाई देते हैं उनकी दीक्षा ही सच्ची दीक्षा है और जिनमें उपर्युक्त लक्षण नहीं दिखलाई देते हैं उनकी दीक्षा निरर्थक है ।। ३७ ।।
गुणों की वृद्धि का कारण परिसुद्धभावओ तह कम्मखओवसमजोगओ होइ । अहिगयगुणवुड्डी खलु कारणओ कज्जभावेण ।। ३८ ।। परिशुद्धभावतः तथा कर्मक्षयोपशमयोगतो भवति । अधिगतगुणवृद्धिः खलु कारणतः कार्यभावेन ॥ ३८ ॥
दीक्षा स्वीकाररूप परिशुद्ध भाव से कर्मों का क्षयोपशम होता है और कर्मों के क्षयोपशम से पूर्व प्राप्त सम्यक्-दर्शनादि गुणों में वृद्धि अवश्य होती है, क्योंकि कारण के होने से कार्य अवश्य होता है - यह नियम है ।। ३८ ।।
साधर्मिक प्रेम की वृद्धि का कारण धम्मम्मि य बहुमाणा पहाणभावेण तदणुरागाओ । साहम्मियपीतीए उ हंदि वुड्डी धुवा होइ ।। ३९ ।। धर्मे च बहुमानात् प्रधानभावेन तदनुरागात् । साधर्मिकप्रीतैः तु हंदि वृद्धिः ध्रुवाद् भवति ।। ३९ ।।
दीक्षित व्यक्ति में धर्म के प्रति अत्यन्त सम्मान की भावना होती है और वह साधर्मिक धर्म अर्थात् सेवा को प्रधान मानने वाला होता है; इसलिये दीक्षितों में साधर्मिकों के प्रति स्नेह की वृद्धि होती है ।। ३९ ।।
बोधवृद्धि का कारण विहियाणुट्ठाणाओ पाएणं सव्वकम्मखओवसमा । णाणावरणावगमा णियमेणं बोहवुड्डित्ति ।। ४० ।। विहितानुष्ठानात् प्रायेण सर्वकर्मक्षयोपशमात् । ज्ञानावरणापगमात् नियमेन बोधवृद्धिरिति ।। ४० ।।
प्राय: विहित आचार का पालन करने से सभी कर्मों का क्षयोपशम एवं ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों का नाश होता है, जिससे नियमत: ज्ञान में वृद्धि होती है ।। ४० ॥
गुरुभक्ति की वृद्धि का कारण कल्लाणसंपयाए इमीएँ हेऊ जओ गुरू परमो ।
इय बोहभावओ चिय जायइ गुरुभत्तिवुड्डीवि ।। ४१ ।। १. 'इमीइ' इति पाठान्तरम् ।
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