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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ द्वितीय
वर्णित देवतत्त्व, गुरुतत्त्व, आगमतत्त्व आदि के प्रति प्रीति से युक्त होता है, वही दीक्षा हेतु आत्मनिवेदन करता है। उपर्युक्त गुणों से रहित जीव उसमें प्रयत्न नहीं करता है। गुरु को भी उपर्युक्त गुणों वाला होना चाहिये ।। ३४ ।।
३२
भाग्यवान् को ही दीक्षा की प्राप्ति धण्णाणमेयजोगो धण्णा चेद्वंति एयणीईए । धणा बहुमण्णन्ते धण्णा जेण प्पदूति ।। ३५ ।। धन्यानामेतद्योगो धन्याः चेष्टन्त एतन्नीत्या !
धन्या बहुमन्यन्ते धन्या ये न प्रदूष्यन्ति ॥ ३५ ॥ वे धन्य हैं, जिन्हें यह दीक्षा प्राप्त होती है और वे धन्य हैं जो दीक्षा के आचारों का नियमपूर्वक पालन करते हैं। वे सभी धन्य हैं, जो दीक्षित व्यक्ति या दीक्षा का सम्मान करते हैं और वे भी धन्य हैं जो दीक्षा से द्वेष नहीं करते हैं ।। ३५ ।। दीक्षा के बाद दीक्षित के करने योग्य विधि दाणमह जहासत्ती सद्धासंवेगकमजुयं णियमा । विहवाणुसारओ तह जणोवयारो य उचिओत्ति ।। ३६ ।। दानमथ यथाशक्ति श्रद्धासंवेगक्रमयुतं नियमात् । विभवानुसारतः तथा जनोपचारश्च उचित इति ।। ३६ ।।
दीक्षार्थी को संघ के साधु-साध्वी आदि को यथाशक्ति एषणीय वस्त्र, पात्र, अन्न, पेय इत्यादि का दान देना चाहिये। दान की यह क्रिया आन्तरिक श्रद्धा और मोक्ष की अभिलाषा से दानधर्म की पारम्परिक रीतियों और अपने वैभव के अनुसार अनिवार्यतः करना ही चाहिये। इसके साथ-साथ जनोपचार अर्थात् अपनेपराये लोगों का उचित रीति से सम्मान करना चाहिये || ३६ ||
सच्ची-झूठी दीक्षा जानने के लक्षण
अहिगय-गुणसाहम्मियपीईबोहगुरुभत्तिवुड्डी य ।
लिंगं अव्वभिचारी पइदियहं सम्मदिक्खाए ।। ३७ ।। अधिगत-गुण- साधर्मिक-प्रीतिबोधगुरुभक्तिवृद्धिश्च । लिङ्गमव्यभिचारी प्रतिदिवसं सम्यग् दीक्षया ।। ३७ ।।
दीक्षित व्यक्ति को अपने द्वारा गृहीत गुणों में, सहधर्मियों के प्रति प्रेम में, तत्त्वज्ञान के अध्ययन में तथा गुरु के प्रति भक्ति में वृद्धि करनी चाहिये। साथ ही दीक्षापूर्वक गृहीत लिङ्ग का उल्लंघन नहीं करना चाहिये अर्थात् मन, वचन और काय से आचार के नियमों का सम्यक्रूपेण पालन करना चाहिये। जिनमें उपर्युक्त
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