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________________ द्वितीय ] जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक ___ यह आत्म-समर्पण उत्तम पुरुष ही कर सकते हैं। अयोग्य पुरुष तो उसको सुन भी नहीं सकता अर्थात् कोई जीव आत्म-समर्पण कर रहा हो तो अयोग्य जीव को तो उसका सुनना भी अच्छा नहीं लगता तो फिर वह आत्म-समर्पण क्या करेगा? अतः आत्म-समर्पण करने वाला जीव योग्य है, इसलिये विशुद्ध भावसहित आत्म-समर्पण उत्तम पुरुष के आचरण का अंग होने से वह आत्मविसर्जनरूप विशुद्धभाव को ही उत्पन्न करता है, इसलिये वह उत्कृष्ट दानधर्म भी होता है ।। ३१ ॥ गुरुणोऽवि णाहिगरणं ममत्तरहियस्स एत्थ वत्थुम्मि । तब्भावसुद्धिहेऊ आणाइ पयट्टमाणस्स ॥ ३२ ॥ गुरोरपि नाधिकरणं ममत्वरहितस्य अत्र वस्तुनि ।। तद्भावशुद्धिहेतुम् आज्ञया प्रवर्तमानस्य ।। ३२ ।। गुरु को भी ऐसे समर्पित भाव वाले दीक्षित जीव और उसकी शिष्यसन्तानों के विषय में अधिकरण दोष नहीं लगता, क्योंकि गुरु ममत्वरहित होता है। दीक्षित के परिणामों की विशुद्धि के लिये वह जिन-आज्ञा के अनुसार ही प्रवृत्ति करता है ।। ३२ ।। णाऊण य तब्भावं जह होइ इमस्स भाववुड्डित्ति । दाणादुवदेसाओ अणेण तह एत्थ जइयव्वं ।। ३३ ।। ज्ञात्वा च तद्भावं यथा भवति अस्य भाववृद्धिरिति । दानाद्युपदेशादनेन तथा अत्र यतितव्यम् ॥ ३३ ।। दीक्षाविधि समाप्त होने के पश्चात् गुरु को नवदीक्षित की मन:स्थिति जान लेनी चाहिए। दीक्षित की धर्म के प्रति अभिरुचि (भाव) जिस प्रकार बढ़ती है, गुरु को उसी प्रकार उस दीक्षित को दान, गुरुसेवा जैसे उपदेश देने का प्रयत्न करना चाहिए ।। ३३ ॥ जिन दीक्षाविधि लेने योग्य शिष्य और देने योग्य गुरु का वर्णन णाणाइगुणजुओ खलु णिरभिस्संगो पयत्थरसिगो य। इय जयइ न उण अण्णो गुरूवि एयारिसो चेव ॥ ३४ ।। ज्ञानादिगुणयुतः खलु निराभेष्वङ्गः पदार्थरसिकश्च ।। इति जयति न पुनोऽन्यो गुरुरपि एतादृशश्चैव ।। ३४ ।। जो दीक्षित व्यक्ति सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र आदि गुणों से युक्त होकर तथा बाह्य भौतिक-पदार्थों से निःस्पृह होकर आगमों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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