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पञ्चाशकप्रकरणम्
[द्वितीय
समक्सरण में पुष्प गिरने से दीक्षा के लिये जिसकी योग्यता निश्चित हो गयी है, उस जीव को सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का आरोपण कराना चाहिये। सम्यग्दर्शन का आरोपण ही जिनदीक्षा का प्रारम्भ है।
इसके पश्चात् सम्यक्त्व के आचार का वर्णन कर दीक्षा की विधि का वर्णन करना चाहिये। बाद में उस दीक्षित की प्रशंसा करनी चाहिये, जैसे तुम धन्य हो, धर्म के योग्य हो आदि। जिनदीक्षा (सम्यक्त्व) के आचारों का वर्णन सुनता हुआ वह प्रसन्न होता है या उदासीन होता है - इसका उसकी मुखाभिव्यक्ति से अवलोकन करना चाहिये ।। २८ ।।
शिष्य का आत्मनिवेदन अह तिपयाहिणपुव्वं सम्मं सुद्धेण चित्तरयणेणं । गुरुणोऽणुवेयणं सव्वहेव दढमप्पणो एत्थ ।। २९ ।। अथ त्रिप्रदक्षिणापूर्वं सम्यक् शुद्धेन चित्तरत्नेन । गुरोऽनुवेदनं सर्वथैव दृढमात्मनः अत्र ।। २९ ।।
तत्पश्चात् शिष्य को गुरु की तीन बार प्रदक्षिणा करके सम्यग्दर्शन से युक्त शुद्ध अन्तःकरण से गुरु से निवेदन करना चाहिये कि अब मैं आपके प्रति समर्पित हूँ। आप मुझ जैसे संसार-समुद्र में डूबे हुए व्यक्तियों के मार्गदर्शक हैं - इस प्रकार गुरु के प्रति दृढ़ मन से समर्पित होना चाहिये ।। २९ ।।
___ आत्मनिवेदन का महत्त्व एसा खलु गुरुभत्ती उक्कोसो एस दाणधम्मो उ । भावविसुद्धीए दढं इहरावि य बीयमेयस्स ।। ३० ।। एषा खलु गुरुभक्तिरुत्कर्ष एषो दानधर्मस्तु । भावविशुद्ध्या दृढं इतरथाऽपि च बीजमेतस्य ।। ३० ।।
भावविशुद्धि से दृढ़ गुरुभक्तिपूर्वक यह आत्मसमर्पण श्रेष्ठतम दानधर्म है और उसके अभाव में यह बीजरूप या हेतुरूप है ।। ३० ।।
आत्मनिवेदन का कारण जं उत्तमचरियमिणं सोऽपि अणुत्तमा ण पारेति । ता एयसगासाओ उक्कोसो होइ एयस्स ।। ३१ ।। यदुत्तमचरितमिदं श्रोतुमपि अनुत्तमा न पारयन्ति । तद् एतत्सकाशाद् उत्कर्षों भवति एतस्य ।। ३१ ।।
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