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द्वितीय ]
जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक
हुए दीक्षार्थी द्वारा – “इच्छाकारेणं तुब्भे दंसणपडिमं समत्तसामाइयं वा आरोवेह" आदि शब्दों के उच्चारण के आधार पर दीक्षार्थी की गति/आगति का ज्ञान होता है। कुछ आचार्यों का कहना है कि आचार्य के मन आदि योगों की प्रवृत्ति के आधार पर शुभाशुभ गति जानी जाती है, आचार्य का मन क्रोध, लोभ, मोह व भय से व्याकुल न हो, अपितु प्रसन्न हो, क्रिया इत्यादि में उच्चारित वाणी स्खलन आदि दोषों से रहित हो, तो दीक्षार्थी की शुभ गति होती है, अन्यथा होने पर अशुभ गति होती है।
कुछ लोगों का मानना है कि दीप, चन्द्र एवं तारों के तेज अधिक हों तो दीक्षणीय की शुभ गति होती है अन्यथा अशुभ गति। कुछ लोगों का मानना है कि दीक्षा होने के बाद दीक्षार्थी के शुभ योगों से शुभ तथा अशुभ योगों से अशुभ गति होती है ।। २६ ।।
दीक्षार्थी की योग्यता-अयोग्यता का निर्णय बाहिं तु पुष्फपाए वियडणचउसरणगमणमाईणि । काराविज्जइ एसो वारतिगमुवरि पडिसेहो ।। २७ ।। बहिस्तु पुष्पपाते विकटन-चतुःशरण-गमनमादीनि । कारापयति एषो वारत्रिकमुपरि प्रतिषेधः ।। २७ ।।
समवसरण के बाहर पुष्पपात होने पर शंका आदि अतिचारों की आलोचना और अर्हदादि चार शरणों (१ अर्हत्, २ सिद्ध, ३ मुनि और ४ धर्म) को स्वीकार करने आदि रूप विधि करानी चाहिये। फिर पूर्ववत् पुष्पपात की विधि करानी चाहिये। उसमें पुष्प यदि समवसरण में पड़ें तो दीक्षार्थी दीक्षा के योग्य है। यदि समवसरण के बाहर पड़ें तो फिर से शंका आदि अतिचारों की आलोचना आदि विधि करानी चाहिये। फिर तीसरी बार पूर्ववत् ही पुष्पपात कराना चाहिये। यदि इस बार पुष्प समवसरण में पड़ें तो दीक्षा देनी चाहिये और यदि समवसरण के बाहर पढ़ें तो दीक्षार्थी को दीक्षा के अयोग्य जानकर दीक्षा नहीं देनी चाहिये। तुमको बाद में दीक्षा देंगे आदि मधुर शब्दों से दीक्षा का प्रतिषेध करना चाहिये ।। २७ ॥ दीक्षा की योग्यता का निर्णय होने के बाद गुरु के द्वारा करने योग्य विधि
परिसुद्धस्स उ तह पुप्फपायजोगेण दंसणं पच्छा । ठितिसाहणमुवबूहण हरिसाइपलोयणं चेव ।। २८ ।। परिशुद्धस्य तु तथा पुष्पपातयोगेन दर्शनं पश्चात् । स्थितिसाधनमुपबृंहणं हर्षादिप्रलोकनं चैव ।। २८ ।।
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