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________________ द्वितीय ] जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक २७ भवणवइ-वाणमंतर-जोइसियाणं च एत्थ देवाणं । अवरुत्तरेण णवरं निद्दिट्ठा समयकेऊहिं ।। २० ।। भवनपति-वानमन्तर-ज्योतिष्काणां चात्र देवानाम् । अपरोत्तरेण केवलं निर्दिष्टा समयकेतुभिः ॥ २० ॥ सिद्धान्तवेत्ताओं ने भवनपति, व्यन्तर तथा ज्योतिष देवताओं की स्थापना के लिए केवल पश्चिमोत्तर दिशा को निर्दिष्ट किया है ।। २० ।। वेमाणियदेवाणं णराण णारीगणाण य पसत्था । पुव्वुत्तरेण ठवणा सव्वेसिं णियगवण्णेहिं ।। २१ ।। वैमानिकदेवानां नराणां नारीगणानां च प्रशस्ताः । पूर्वोत्तरेण स्थापना सर्वेषां निजकवणैः ॥ २१ ॥ पूर्वोत्तर दिशा में वैमानिकदेव, मनुष्य और नारीगण की स्थापना करनी चाहिये। इन सबकी स्थापना उसी जाति के देवता के शरीर के वर्ण के अनुसार करनी चाहिये ॥ २१ ॥ अहिणउलमयमयाहिवपमुहाणं तह य तिरियसत्ताणं । बितियंतरम्मि एसा तइए पुण देवजाणाणं ।। २२ ।। अहिनकुल-मृग-मृगाधिपप्रमुखाणां तथा च तिर्यक्सत्त्वानाम् । द्वितीयान्तरे एषा तृतीये पुनः देवयानानाम् ।। २२ ।। ... सर्प, नेवला, मृग, सिंह, अश्व, भैंसा आदि प्रमुख तिर्यञ्च प्राणियों को द्वितीय प्राकार में स्थापित करना चाहिये और तीसरे गढ़ में देवताओं के हाथी, मगर, सिंह, मोर, कलहंस आदि के जैसे आकार वाले वाहनों की स्थापना करनी चाहिये ॥ २२ ॥ दीक्षार्थी का समवसरण में प्रवेश रइयम्मि समोसरणे एवं भत्तिविहवाणुसारेण । सुइभूओ उ पदोसे अहिगयजीवो इहं एइ ।। २३ ।। रचिते समवसरण एवं भक्तिविभवानुसारेण । शुचिभूतस्तु प्रदोषे अधिगतजीव इह इति ।। २३ ।। इस प्रकार द्रव्य और भाव से पवित्र हुआ दीक्षार्थी शुभ मुहूर्त में बहुमान पूर्वक अपनी समृद्धि के अनुसार रचित समवसरण में प्रवेश करता है ।। २३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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