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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ द्वितीय
वंतरगाहवणाओ तोरणमाईण होइ विण्णासो । चितितरुसीहासणछत्तचक्कधयमाइयाणं च ॥ १६ ॥ व्यन्तरकाह्वानात् तोरणादीनां भवति विन्यासः । चैत्यतरुसिंहासन-छत्र-चक्र-ध्वजादीनां च ।। १६ ।।
व्यन्तरदेवों का आह्वान करके उन प्राकारों के द्वारादि के तोरण, पीठ, देवछन्द, पुष्करिणी आदि की रचना की जाती है। पुन: चैत्यतरु (अशोकवृक्ष), सिंहासन, छत्र, चक्र, ध्वज इत्यादि की रचना की जाती है ।। १६ ।।
भुवणगुरुणो य ठवणा सयलजगपियामहस्स तो सम्म । उक्किट्ठवण्णगोवरि समवसरणबिंबरूवस्स ।। १७ ॥ भुवनगुरोश्च स्थापना सकलजग-पितामहस्य ततः सम्यक् । उत्कृष्टवर्णकोपरि
समवसरणबिम्बरूपस्य ।। १७ ।। इसके बाद समवसरण में जिस प्रकार चारों तरफ भगवान् होते हैं, उसी प्रकार चारों तरफ सम्पूर्ण संसार के पितामह और त्रिभुवनगुरु जिनेन्द्रदेव के बिम्बों की उत्कृष्ट चन्दन के ऊपर सम्यक् प्रकार से स्थापना करनी चाहिये ॥ १७ ।।
एयस्स पुव्वदक्खिणभागेणं मग्गओ गणधरस्स । मुणिवसभाणं वेमाणिणीण तह साहुणीणं च ।। १८ ।। एतस्य पूर्वदक्षिणभागेन मार्गतः गणधरस्य । मुनिवृषभानां वैमानिनीनां तथा साध्वीनां च ।। १८ ।।
समवसरण में जिनबिम्ब के दक्षिण-पूर्व भाग में गणधरों की, गणधरों के पीछे मुनियों की, मुनियों के पीछे वैमानिक देवियों की तथा उनके पीछे साध्वियों की स्थापना करनी चाहिये ।। १८ ।।
इय अवरदक्खिणेणं देवीणं ठावणा मुणेयव्वा । भुवणवइवाणमंतरजोइससंबंधिणीणत्तिः ॥ १९ ।। इति अपरदक्षिणेन देवीनां स्थापना ज्ञातव्या । भुवनपति-वानमन्तरज्योतिष-सम्बन्धितनीनामिति ॥ १९ ।।
इसी प्रकार पश्चिम-दक्षिण दिशा में भवनवासियों (असुरादि), व्यन्तरों तथा ज्योतिषियों की देवियों की स्थापना करनी चाहिये ।। १९ ।।
१. 'संबंधणीणत्ति' इति पाठान्तरम् ।
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