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________________ २४ पञ्चाशकप्रकरणम् बहुजणविरुद्धसंगो देसादाचारलंघणं चेव । उव्वणभोगो य तहा दाणाइवि पगडमण्णे तु ॥ ९ ॥ बहुजनविरुद्धसङ्गो देशाद्याचारलङ्घनं चैव । उल्बणभोगश्च तथा दानाद्यपि प्रकटमन्ये तु ॥ ९ ॥ बहुत से लोग जिस व्यक्ति के विरुद्ध हों, उसकी संगति करना, देश, जनपद, ग्राम, कुल आदि में प्रचलित आचार का अतिक्रमण करना, वस्त्रादि से निम्न लोगों की तरह शरीर शोभा करना अथवा कुछ आचार्यों की दृष्टि में देश, काल, वैभव आदि का विचार किये बिना अनुचित दान तथा तपादि को तुच्छतापूर्वक लोगों के सामने प्रकट करना भी लोकविरुद्ध है ।। ९ ।। साहुवसम्म तोसो सइ सामत्थम्मि अपडियारो य । माइयाणि एत्थं लोगविरुद्धाणि - साधुव्यसने तोषः सति सामर्थ्ये एतदादीनि अत्र लोकविरुद्धानि अप्रतिकारश्च । शिष्टजनों के प्रति दुष्ट लोगों द्वारा उपस्थित की गई विपत्तियों को देखकर खुश होना अथवा उन विपत्तियों को दूर करने में समर्थ होने पर भी विरोध नहीं करना इत्यादि को जिन दीक्षाकाल में लोकविरुद्ध जानना चाहिये || १० || ज्ञानादियुतस्तु गुरु: स्वप्रे उदगादितारणं अचलादिरोहणं वा तथैव व्यालादिरक्षा याणि ॥ १० ॥ सद्गुरु प्राप्ति के सूचक इओ उ गुरू सुविणे उदगादितारणं तत्तो । अचलाइरोहणं वा तहेव वालाइरक्खा वा ।। ११ ।। Jain Education International ज्ञेयानि ॥ १० ॥ [ द्वितीय ततः । ज्ञानादि अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र से युक्त गुरु का दर्शन होना, जल, अग्नि, गड्ढे आदि को पार कर जाना, पर्वत, प्रासाद, वृक्ष, शिखर पर चढ़ जाना तथा भुजङ्गादि श्वापद हिंसक जीवों से आत्म-रक्षा होना इत्यादि स्वप्र सद्गुरु- प्राप्ति के सूचक माने जाते हैं ।। ११ ।। दीक्षास्थल शुद्धि For Private & Personal Use Only वा ॥। ११ ॥ वाउकुमाराईणं आहवणं णियणिएहिं मन्तेहिं । मन्त्रैः । मुत्तासुत्तीए किल पच्छा तक्कम्मकरणं तु ॥ १२ ॥ वायुकुमारादीनामाह्वानं निजनिजै: मुक्ताशुक्त्या किल पश्चात् तत्कर्मकरणं तु ॥ १२ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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