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________________ द्वितीय] जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक एईए' चेव सद्धा जायइ पावेज्ज कहमहं एयं ? । भवजलहिमहाणावं णिरवेक्खा साणुबंधा य ।। ६ ॥ प्रकृत्या श्रुत्वा वा दृष्ट्वा वा कांश्चित् दीक्षितान् जीवान्। मार्ग समाचरतः धार्मिकजनबहुमतान् नित्यम् ।। ५ ।। एतस्यामेव श्रद्धा जायते प्रापयां कथमहमेतत् ? भवजलधिमहानावं निरपेक्षा सानुबन्धा च ।। ६ ।। कर्मों के क्षयोपशम के कारण स्वत: ही (निसर्गतः) दीक्षा में रुचि उत्पन्न हो जाती है या वैराग्य प्रतिपादक धर्म को सुनकर या दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मार्ग का अनुसरण कर रहे कुछ दीक्षित और धार्मिक लोगों को देखकर दीक्षा के प्रति श्रद्धा होती है और मन में एक इच्छा जागृत होती है कि मैं भी इस भव-समुद्र को पार करने में समर्थ दीक्षारूपी महानौका को कैसे प्राप्त करूँ? यह दीक्षा निरपेक्ष अर्थात् सांसारिक सुख आदि की अपेक्षा से रहित एवं जीवनपर्यन्त के लिये होती है ।। ५-६ ।। विग्घाणं चाभावो भावेऽवि य चित्तथेज्जमच्चत्थं । एयं दिक्खारागो णिद्दिटुं समयकेऊहिं ।। ७ ॥ विघ्रानां चाभावो भावेऽपि च चित्तस्थैर्यमत्यर्थम् । एतद् दीक्षारागो निर्दिष्टं समयकेतुभिः ॥ ७ ।। विघ्नों का अभाव अथवा विघ्नों की विद्यमानता में भी अत्यन्त चैतसिक दृढ़ता को सिद्धान्तविदों ने दीक्षाराग ( दीक्षा के प्रति अनुराग ) कहा है ।। ७ ।। लोकविरुद्ध कार्य सव्वस्स चेव जिंदा विसेसओ तह य गुणसमिद्धाणं । उजुधम्मकरणहसणं रीढा जणपूयणिज्जाणं ।। ८ ।। सर्वस्य चैव निन्दा विशेषत: तथा च गुणसमृद्धानाम् । ऋजुधर्मकरणहसनं रीढा जनपूजनीयानाम् ।। ८ ॥ किसी की भी निन्दा लोकविरुद्ध है, फिर गुण सम्पन्न लोगों ( आचार्यादि ) की निन्दा तो और भी अधिक लोकविरुद्ध है। सरलचित्त वाले व्यक्तियों द्वारा किये गये धर्माचार अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान का उपहास करना या लोक-सम्मान्य राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी इत्यादि का तिरस्कार अथवा निन्दा करना लोक-विरुद्ध है ।। ८ ।। १. “एईई' इति पाठान्तरम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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