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________________ पञ्चाशकप्रकरणम् [ द्वितीय पापकर्म के लिये गमनक्रिया का त्याग। मनमुण्डन अर्थात् दुर्विचारों का त्याग और शरीर मुण्डन अर्थात् शरीर की कुचेष्टा का त्याग। २२ प्रस्तुत गाथा में चित्त के मुण्डन पर विशेष बल दिया गया है। जैनदीक्षा विधि में चैतसिक विकारों का त्याग अत्यन्त आवश्यक होता है। किसी ने सिर मुण्डन कराकर बाह्यवेश धारण कर लिया हो, किन्तु यदि उसके कषायादि दोष दूर नहीं हुए हों तो उसकी दीक्षा वास्तविक दीक्षा नहीं है। दीक्षा का समय चरमम्मि चेव भणिया एसा खलु पोग्गलाण सुद्धसहावस्स तहा विसुज्झमाणस्स चरमे चैव श्रणिता एषा खलु पुद्गलानां शुद्धस्वभावस्य तथा विशुध्यमानस्य यह दीक्षा ( यथाप्रवृत्तिकरण की दशा में कर्मों का क्षयोपशम होने से ) शुद्ध स्वभाव वाले तथा उत्तरोत्तर आत्मविशुद्धि से युक्त जीव को उसके अन्तिम पुद्गल परावर्तन काल में होती है। परियट्टे । जीवस्स ॥ ३ ॥ विशेष : केवल मस्तक मुण्डन करवाकर बाह्यवेश धारण करने रूप दीक्षा अन्तिम पुद्गल परावर्त के पहले भी हो सकती है, लेकिन चित्तमुण्डनरूप दीक्षा तो अन्तिम पुद्गल परावर्त में ही होती है। अनन्त उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल परिमाण एक पुद्गल परावर्त होता है || ३ || परिवर्ते । जीवस्य || ३ || दीक्षा का अधिकारी दिक्खाऍ चेव रागो लोगविरुद्धाण चेव चाउत्ति । सुंदरगुरुजोगोऽवि य जस्स तओ एत्थ उचिओत्ति ॥ ४ ॥ दीक्षायां चैव रागः लोकविरुद्धानां चैव त्याग इति । सुन्दरगुरुयोगोऽपि च यस्य तकोऽत्र उचित इति ॥ ४ ॥ जिसका दीक्षा अर्थात् साधना के प्रति अनुराग है, लोक व्यवहार में निषिद्ध कार्यों का जिसने त्याग कर दिया है एवं जिसको सद्गुरु का योग प्राप्त हुआ है, वही जीव दीक्षा का अधिकारी है ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only दीक्षा के प्रति अनुराग पयतीए सोऊण व दट्ठूण व केइ दिक्खिए जीवे । धम्मियजण बहुमए निच्चं ।। ५ ।। मग्गं समायरंते - www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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