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जिनदीक्षाविधि पञ्चाशक
णमिऊण महावीरं जिणदिक्खाए विहिं पवक्खामि । वयणाउ' णिउणणयजुयं भव्वहियट्ठाय लेसेण ॥ १ ॥ नत्वा महावीरं जिनदीक्षाया विधिं प्रवक्ष्यामि । वचनात् निपुणनययुतं भव्यहितार्थाय लेशेन ।। १ ।।
भगवान् महावीर को नमस्कार करके मैं भव्य जीवों के हितार्थ आगमों से उद्धृत, नय-नीति से युक्त जिनदीक्षा की विधि का संक्षेप में विवेचन करूँगा ।। १ ॥
विशेष : वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति जब अपने सब सम्बन्धियों से क्षमा याचना कर, गुरु की शरण में जाकर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा रहकर समभाव की साधना करने की प्रतिज्ञा करता है तो इसे जिनदीक्षा या प्रव्रज्या कहते हैं।
दीक्षा का स्वरूप दिक्खा मुंडणमेत्थं तं पुण चित्तस्स होइ विण्णेयं । ण हि अप्पसंतचित्तो धम्महिगारी जओ होइ ।। २ ।। दीक्षा मुण्डनमत्र तत् पुनः चित्तस्य भवति विज्ञेयम् । न हि अप्रशान्तचित्तो धर्माधिकारी यतो भवति ।। २ ।।
दीक्षा मुण्डन को कहते हैं। वह मुण्डन चित्त का होता है, ऐसा जानना चाहिये। चित्त-मुण्डन से तात्पर्य है - मिथ्यात्व, क्रोध आदि दोषों को दूर करना, क्योंकि चंचल चित्तवाला व्यक्ति धर्म (दीक्षा) का अधिकारी नहीं होता है ।। २ ।।
विशेष : जिनागम में दस प्रकार के मुण्डन कहे गए हैं - पाँच इन्द्रियों का मुण्डन अर्थात् उनके विषयों का त्याग। वचन मुण्डन अर्थात् बिना प्रयोजन के कुछ न बोलना। हस्त मुण्डन अर्थात् हाथ से पापकर्म नहीं करना। पादमुण्डन अर्थात् अविवेकपूर्वक पैरों को सिकोड़ने, फैलाने आदि व्यापारों का त्याग अथवा
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