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________________ प्रथम ] श्रावकधर्मविधि पञ्चाशक जिस अज्ञान रूपी अन्धकार को चन्द्र और सूर्य दूर नहीं कर सकते हैं, उसे दूर करने में यह संक्षिप्त उपदेश सक्षम है। सुत्तविउद्धस्स पुणो सुहुमपयत्थेसु चित्तविण्णासो । भवठिइणिरूवणे वा अहिगरणोवसमचित्ते वा ।। ४७ ।। सूत्रविबुद्धस्य पुनः सूक्ष्मपदार्थेषु चित्तविन्यासः । भवस्थितिनिरूपणे वा अधिकरणोपशमचित्ते वा ।। ४७ ।। रात्रि बहुत बाकी हो तभी जगे हुए श्रावक को कर्म, आत्मा आदि सूक्ष्म पदार्थों के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिये या संसार के अनित्य-स्वरूप के विषय में विचार करना चाहिये या क्लेश आदि पापकर्मों से कब और कैसे निवृत्ति होगी, उस विषय में शान्तचित्त से सोचना चाहिये ।। ४७ ।। आउयपरिहाणीए असमंजसचेट्ठियाण व विवागे । खणलाभदीवणाए धम्मगुणेसुं च विविहेसु ।। ४८ ।। आयुः परिहाणौ असमञ्जसचेष्टितानां वा विपाके । लक्षणलाभदीपनायां धर्मगुणेषु च विविधेषु ।। ४८ ।। प्रतिक्षण क्षीण हो रही आयु की विचारणा करनी चाहिये या प्राणिवध आदि अनुचित कार्यों के विपाक की विचारणा करना चाहिये या क्षणभर में होने वाले लाभ के विषय में सोचना चाहिये (जैसे - जीव क्षणभर में अशुभ अध्यवसाय से अनेक अशुभ कर्मों का बन्ध करता है और क्षणभर में शुभ अध्यवसाय से अनेक शुभ कर्मों का बन्ध करता है) या विविध धर्मगुणों अर्थात् धर्म से होने वाले परलोक सम्बन्धी विविध लाभों के चिन्तन में चित्त लगाना चाहिये ।। ४८ ॥ बाहगदोसविवक्खे धम्मायरिए य उज्जयविहारे । एमाइचित्तणासो संवेगरसायणं देइ ।। ४९ ।। बाधकदोषविवक्षे धर्माचार्ये च उद्यतविहारे । एवमादिचित्तन्यासः संवेगरसायनं ददाति ।। ४९ ।। शुभ अनुष्ठान में बाधक रागादि दोषों के निरोध में मन को लगाना चाहिये या सम्यक् दर्शन उत्पन्न करने वाले धर्माचार्य में चित्त लगाना चाहिये या साधुओं के वैराग्यभाव सम्बन्धी विचारणा करनी चाहिये। इस प्रकार की विचारणा संवेग रूप रसायन देती है अर्थात् ऐसी विचारणा से संसार से भय या मोक्षानुराग उत्पन्न होता है ।। ४९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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