________________
१८
पञ्चाशकप्रकरणम्
[प्रथम
ऐसी विधि से धन कमाने का प्रयल करना चाहिये, (१४) उसके बाद शास्त्रोक्त विधि से यथासमय भोजन करना चाहिये। जिस समय भोजन करने से शरीर नीरोग रहता हो या प्रत्याख्यान का पालन होता हो, उसे ही भोजन का उचित समय जानना चाहिये। असमय में भोजन करने से धार्मिक बाधा और शारीरिक नुकसान होता है, (१५) भोजनोपरान्त प्रत्याख्यान लेना चाहिये, (१६) फिर जिनमन्दिर में आगम का श्रवण करना चाहिये और (१८) फिर जिनमूर्ति के समक्ष चैत्यवन्दन आदि करना चाहिये ।। ४४ ।।
जइविस्सामणमुचिओ जोगो नवकारचिंतणाईओ। गिहिगमणं विहिसुवणं सरणं गुरुदेवयाईणं ।। ४५ ।। यतिविश्रामणमुचितो योगः नमस्कारचिन्तनादिकः । गृहगमनं विधिश्रवणं स्मरणं गुरुदेवतादीनाम् ।। ४५ ।।
(१९) फिर जो साधु वैयावृत्य करते-करते थक गये हों और विशेष कारण से विश्राम करना चाहते हों, श्रावक को चाहिये कि उनको थकान दूर करने दें। (२०) फिर नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करना तथा याद किये गये प्रकरण आदि का पाठ करना आदि उचित कार्य करने चाहिये, (२१) फिर घर जाना चाहिये, (२२) विधिपूर्वक सोना चाहिये, (२३) सोने के पहले देव-गुरु आदि का स्मरण करना चाहिये ।। ४५ ।।
अब्बंभे पुण विरई मोहदुगुंछा सतत्तचिन्ता य । इत्थीकलेवराणं तव्विरएसुं च बहुमाणो ।। ४६ ।। अब्रह्मणि पुनो विरति: मोहजुगुप्सा स्वतत्त्वचिन्ता च । स्त्रीकलेवराणां तद्विरतेषु च बहुमान: ।। ४६ ।।
(२४) अब्रह्म (स्त्री-सहवास) का त्याग करना चाहिये, इसके लिये स्त्री परिभोग के कारण रूप पुरुषवेद आदि की निन्दा करनी चाहिये, (२५) स्त्रीशरीर के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिये (स्त्री का शरीर वीर्य-रक्त से उत्पन्न हुआ है, उसके नौ छिद्रों से मल पदार्थ बाहर निकलते हैं, अत: मल से उसका शरीर अपवित्र है, वह केवल अस्थिपंजर रूप है) और (२६) अब्रह्म का त्याग करने वालों पर आन्तरिक प्रेम रखना चाहिए। लोगों के जिस अज्ञानरूपी अन्धकार को चन्द्र और सूर्य की कान्ति भी दूर नहीं कर सकती है, वह अन्धकार इस अल्प उपदेश के निरन्तर सुने जाने से नष्ट हो जाता है ।। ४६ ।।
विशेषार्थ : उपर्युक्त गाथा में आचार्यश्री ने चतुरतापूर्वक अपने नाम को गुप्त रखा है। कवि ग्रन्थ की विशिष्टता सिद्ध करने के लिये कह रहा है कि -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org