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प्रथम]
श्रावकधर्मविधि पञ्चाशक
निवसेत् तत्र श्राद्ध: साधूनां यत्र भवति सम्पातः । चैत्यगृहाणि यस्मिन् च तदन्यसाधर्मिका एव ।। ४१ ।।
साधुओं का जहाँ आगमन हो, जहाँ जिनमन्दिर हो तथा जहाँ सहधर्मी बन्धु हों, वहीं श्रावक को रहना चाहिये ।। ४१ ।।
णवकारेण विबोहो अणुसरणं सावओ वयाई मे । जोगो चिइवंदणमो पच्चक्खाणं च विहिपुव्वं ॥ ४२ ॥ नमस्कारेण विबोधोऽनुस्मरणं श्रावकव्रतानि मम । योगः चैत्यवन्दनं प्रत्याख्यानं च विधिपूर्वम् ॥ ४२ ।।
(१) सोने के बाद नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए उठना, (२) मैं श्रावक हूँ, मेरे अणुव्रत आदि नियम हैं - ऐसा स्मरण करना, (३) उसके बाद नित्य क्रिया से निवृत्त होना चाहिये, (४) उसके बाद विधिपूर्वक पूजा करके चैत्यवन्दन करना चाहिये और (५) फिर विधिपूर्वक प्रत्याख्यान करना चाहिये ।। ४२ ।।
तह चेईहरगमणं सक्कारो वंदणं गुरुसगासे । पच्चक्खाणं सवणं जइपुच्छा उचियकरणिज्जं ।। ४३ ।। तथा चैत्यगृहगमनं सत्कारो वन्दनं गुरुसकाशे । प्रत्याख्यानं श्रवणं यतिपृच्छा उचितकरणीयम् ।। ४३ ।।
(६) विधिपूर्वक जिनमन्दिर जाना चाहिये और विधिपूर्वक उसमें प्रवेश करना चाहिये, (७) जिनमन्दिर में जिनेन्द्रदेवका सत्कार करना चाहिये, (८) फिर चैत्यवन्दन (देववन्दन) करना चाहिये, (९) फिर गुरु के समीप प्रत्याख्यान करना चाहिये, (१०) गुरु से आगम का श्रवण करना चाहिये, (११) उसके बाद साधुओं से उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछना चाहिये। ऐसा पूछने से विनय प्रदर्शित होता है। (१२) पूछने के बाद बीमारी आदि को दूर करने हेतु ओषधि आदि आवश्यक वस्तु की व्यवस्था करनी चाहिये। यदि पूछने के बाद आवश्यक वस्तु की व्यवस्था नहीं की जाती है तो पूछना सार्थक नहीं होता है ।। ४३ ।।
अविरुद्धो ववहारो काले तह भोयणं च संवरणं । चेइहरागमसवणं सक्कारो वंदणाई य ।। ४४ ।। अविरुद्धो व्यवहारः काले तथा भोजनं च संवरणम् । चैत्यगृहागमश्रवणं सत्कारो वन्दनादि च ।। ४४ ।।
(१३) उसके बाद शास्त्र से अविरुद्ध व्यापार करना चाहिये अर्थात् पन्द्रह कर्मादान तथा अनीति आदि का त्याग करके जिसमें अत्यल्प पाप लगे -
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