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पञ्चाशकप्रकरणम्
[प्रथम
एवमसंतोऽवि इमो जायइ जाओऽवि ण पडइ कयाई । ता एत्थं बुद्धिमया अपमाओ होइ कायव्वो ।। ३८ ।। एवमसनपि अयं जायते जातोऽपि न पतति कदाचित् । तस्मात् अत्र बुद्धिमता अप्रमादो भवति कर्तव्यः ।। ३८ ।।
इस प्रकार का वर्तन करने पर सम्यक्त्व और व्रतों के धारण करने रूप परिणाम (मनोभाव) न होने पर भी प्रयत्न करने पर तदनुरूप परिणाम उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न हुए परिणाम कभी जाते नहीं हैं। इसलिए बुद्धिमान् पुरुष को व्रतों के स्मरण आदि में प्रमाद-रहित होकर प्रयत्न करना चाहिये ।। ३८ ।।
एत्थ उ सावयधम्मे पायमणुव्वयगुणव्वयाई च । आवकहियाई सिक्खावयाइं पुण इत्तराइंति ॥ ३९ ।। अत्र तु श्रावकधर्मे प्रायः अणुव्रतगुणव्रतानि च । यावत्कथिकानि शिक्षाव्रतानि पुन इत्वराणीति ।। ३९ ।।
इस श्रावकधर्म में पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का पालन प्रायः जीवनपर्यन्त होता है। शिक्षाव्रतों का पालन थोड़े समय के लिए होता है ।। ३९ ।।
- यहाँ 'प्रायः' शब्द होने से पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रत चातुर्मास आदि थोड़े समय के लिये भी ग्रहण किये जा सकते हैं - ऐसा समझना चाहिये।
संलेहणा य अंते ण णिओगा जेण पव्वयइ कोई । तम्हा णो इह भणिया विहिसेसमिमस्स वोच्छामि ।। ४० ।। संलेखना च अन्ते न नियोगा येन प्रव्रजति कोऽपि । तस्मान् न इह भणिता विधिं शेषमस्य वक्ष्यामि ।। ४० ।।
किसी भी मुनि के समान सम्यक्त्व परिणामी श्रावक को भी जीवन के अन्त में संलेखना लेनी ही पड़े, ऐसा कोई नियम नहीं है, इसलिए यहाँ संलेखना का विवेचन नहीं किया है। श्रावक के शेष नियम आगे की गाथाओं में कहूँगा ।। ४० ॥
निवसेज्ज तत्थ सद्धो साहूणं जत्थ होइ संपाओ। चेइयहराई जम्मि' य तयण्णसाहम्मिया चेव ।। ४१ ।।
१. “सड्ढो' इति पाठान्तरम् । २. 'जम्मी' इति पाठान्नम् ।
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