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१२
पञ्चाशकप्रकरणम्
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[प्रथम
आवश्यकता पड़ने पर उसे दूसरों को आदेश देकर मँगाना।
२. प्रेष्य-प्रयोग - सीमित क्षेत्र के बाहर कार्य पड़ने पर दूसरे को भेजना।
३. शब्दानुपात - मर्यादित क्षेत्र के बाहर के व्यक्ति को बुलाने के लिए खाँसी आदि से शब्द करना।
४. रूपानुपात - मर्यादित क्षेत्र के बाहर के व्यक्ति को अपने पास बुलाने के लिए शारीरिक मुद्रा द्वारा संकेत करना आदि।
५. पुद्गल-प्रक्षेप - मर्यादित क्षेत्र के बाहर के व्यक्ति को बुलाने के लिए कंकड़ आदि फेंकना।
देशावकाशिक व्रत के अन्तर्गत श्रावक इन क्रियाओं का त्याग करता है। आहारदेहसक्कारबंभवावारपोसहो यऽन्नं । देसे सव्वे य इमं चरमे सामाइयं णियमा ।। २९ ॥ आहारदेहसत्कारब्रह्मव्यापारपौषधश्च अन्यत् । देशे सर्वे च इदं चरमे सामायिकं नियमात् ।। २९ ।।
आहार-पौषध - आहार का त्याग, देहसत्कार-पौषध – शरीर सत्कार का त्याग, ब्रह्मचर्य-पौषध - मैथुन का त्याग और अव्यापार-पौषध - पाप व्यापार का त्याग, इन चारों पौषधों के दो-दो भेद होते हैं - देश (अंशत:) और सर्व (पूर्णतः), अर्थात् इनके किसी एक भाग का त्याग करना देश-पौषध और सम्पूर्ण का त्याग करना सर्व-पौषध कहलाता है। पहले तीन पौषध अर्थात् आहार, देहसत्कार और ब्रह्मचर्य में सामायिक हो या न हो, लेकिन चौथे अव्यापार-पौषध में सामायिक तो नियम से होती ही है। क्योंकि अव्यापार-पौषधवाला सावध व्यापार नहीं करता है, इसलिये यदि वह सामायिक न ले तो उसके लाभ से वह वंचित रह जाता है ।। २९ ।।
अप्पडिदुप्पडिलेहियऽपमज्जसेज्जाइ वज्जई एत्थ । संमं च अणणुपालणमाहाराईसु
सव्वेसु ।। ३० ।। अप्रतिदुष्प्रतिलेखिताप्रमार्जितशय्यादि वर्जयति अत्र । सम्यक् च अननुपालनमाहारादिषु सर्वेषु ।। ३० ।।
श्रावक पौषध में अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक, अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रश्रवणभूमि, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित उच्चारप्रश्रवणभूमि और सम्यक् अननुपालन - इन पाँच
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