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प्रथम ]
क्षण होने वाली ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जिन पर्यायों से समता-भाव की प्राप्ति होती है, वे सामायिक हैं। इसलिये सामायिक में मन, वचन और काय से सभी पापों का त्याग करके स्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति करनी चाहिये ।
मणवयणकायदुपणिहाणं इह जत्तओ विवज्जेइ ।
श्रावकधर्मविधि पञ्चाशक
सइअकरणयं अणवट्ठियस्स तह करणयं चेव ।। २६ ।। मनोवचनकायदुष्प्रणिधानं इह यत्नतो स्मृति-अकरणकं अनवस्थितस्य तथा
विवर्जयति । करणकमेव || २६ ।।
श्रावक के द्वारा सामायिक में मनोदुष्प्रणिधान
पापयुक्त विचार
करना, वचनदुष्प्रणिधान - पापयुक्त वचन बोलना, कायदुष्प्रणिधान - पापयुक्त कार्य करना, स्मृतिभ्रंश - प्रमाद के कारण सामायिक नहीं करना या सामायिक का समय भूल जाना और अनवस्थितकरण प्रमाद से चित्त की स्थिरता के बिना सामायिक करने का त्याग किया जाता है ।। २६ ।।
दिसिय हियस्स दिसापरिमाणस्सेह पइदिणं जं तु । परिमाणकरमेयं अवरं खलु होइ विष्णेयं ।। २७ ।।
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यत्तु ।
दिग्व्रतगृहीतस्य दिशापरिमाणस्येह प्रतिदिनं परिमाणकरणमेतद् अपरं खलु भवति विज्ञेयम् ।। २७ ।। दिव्रत में लिये हुए दिशा परिमाण की सीमा को प्रतिदिन के लिये कम करना देशावकाशिक नामक दूसरा शिक्षाव्रत है - ऐसा जानना चाहिये ॥ २७ ॥
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दिव्रत में बाहर जाने की सीमा का निर्धारण जीवन पर्यन्त के लिये किया जाता है। जैसे जीवन पर्यन्त पूर्व दिशा में ५०० किलोमीटर से आगे नहीं TM जाने का नियम लेना | देशावकाशिक व्रत में अहोरात्र, दिवस, रात्रि, प्रहर आदि के लिये गमनागमन की सीमा निश्चित की जाती है।
वज्जइ इह आणयणप्पओग-पेसप्पओगयं चेव ।
सद्दाणुरूववायं तह बहिया
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पोग्गलक्खेवं ॥ २८ ॥
वर्जयति इह आनयनप्रयोगं
प्रेष्यप्रयोगकमेव ।
शब्दानुरूपपातं तथा बहिः पुद्गलक्षेपम् ॥ २८ ॥
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११
श्रावक देशावकाशिक व्रत में आनयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गल - प्रक्षेप इन पाँच अतिचारों का त्याग करता है ।। २८ ।।
विशेष : १. आनयन-प्रयोग
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सीमित क्षेत्र के बाहर की वस्तु की
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