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पञ्चाशकप्रकरणम्
[ प्रथम
तथाऽनर्थदण्डविरतिः अन्यत् स चतुर्विधः अपध्याने । प्रमादाचरिते हिंस्रप्रदानपापोपदेशे च ।। २३ ।।
तीसरा गुणव्रत अनर्थदण्डविरति है। अनर्थदण्ड के अपध्यान (अशुभध्यान), प्रमादाचरण ( प्रमत्त होकर कार्य करना ), हिंसक-शस्त्र प्रदान ( हथियार आदि दूसरों को देना ) और पापोपदेश ( पापकर्मों का उपदेश देना ) - ये चार भेद होते हैं ।। २३ ।।
जिस पापकर्म से आत्मा दण्डित होती हो, वह दण्ड कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है - अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड। आजीविका-अर्जन आदि के लिये जो पाप किया जाये वह अर्थदण्ड है और अकारण ही कोई पापकार्य किया जाये, वह अनर्थदण्ड है। ऊपर बतलाए गए अपध्यान (अशुभध्यान) आदि पापों की आजीविका-अर्जन आदि में आवश्यकता नहीं होती है, इसलिये अपध्यान आदि अनर्थदण्ड हैं।
कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहिगरणं च । उवभोगपरीभोगाइरेगयं चेत्थ वज्जेइ ।। २४ ।। कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यं संयुताधिकरणञ्च । उपभोगपरिभोगातिरेकतां चात्र वर्जयति ॥ २४ ।।
श्रावक तीसरे गुणव्रत में कन्दर्प - विषय-भोग सम्बन्धी रागवर्धक वाणी या क्रिया, कौत्कुच्य – हास्यवर्धक वाणी या चेष्टा, मौखर्य – बिना विचारे ही जैसे-तैसे बोलना, संयुक्ताधिकरण - जीव-हिंसा के साधन, जैसे - कुल्हाड़ी, हल इत्यादि प्रदान करना और उपभोग-परिभोगातिरेक - अपने और अपने स्वजनों की आवश्यकताओं से अधिक उपभोग और परिभोग की सामग्री रखना - इन सबका त्याग करता है ॥ २४ ।।
सिक्खावयं तु एत्थं सामाइयमो तयं तु विण्णेयं । सावज्जेयरजोगाण वज्जणासेवणारूवं ।। २५ ॥ शिक्षाव्रतं तु अत्र सामायिकं तकं तु विज्ञेयम् । सावद्येतरयोगानां
वर्जनासेवनारूपम् ।। २५ ।। शिक्षाव्रतों में पहला शिक्षाव्रत सामायिक है। अमुक समय तक सावध (पापयुक्त) कार्यों का त्याग करना और निरवद्य (पापरहित) कार्य करना सामायिक है ।। २५ ॥
विशेष : जिससे सम-भाव की प्राप्ति होती हो, वह सामायिक है। प्रति
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