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________________ पञ्चाशकप्रकरणम् [ प्रथम ४. द्विपद-चतुष्पद कारण - पुत्रादि दो पैरवाले प्राणियों एवं गाय इत्यादि चार पैरवाले प्राणियों के गर्भाधान एवं प्रसवन से उनकी संख्या का उल्लंघन होने से अतिचार लगता है। जैसे - कोई व्यक्ति १२ महीने तक द्विपदचतुष्पद प्राणियों की एक निश्चित संख्या का परिमाण करे। यदि १२ महीने के अन्दर ही किसी का जन्म हो तो संख्या परिमाण से अधिक हो जाती है। इसलिये अमुक समय के बाद गाय इत्यादि का गर्भाधान कराना चाहिये, जिससे १२ महीने के बाद ही कोई जन्म हो। ५. कुप्य-भाव - गृहोपयोगी वस्तुओं जैसे - गद्दा, गुदरा, थाली, परात, कटोरा आदि के परिमाण का उल्लंघन करने से अतिचार लगता है। श्रावक उपर्युक्त अतिचारों का त्याग करता है। उड्डाहोतिरियदिसं चाउम्मासाइकालमाणेण । गमणपरिमाणकरणं गुणव्वयं होइ विनेयं ॥ १९ ॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्दिक् चातुर्मासादिकालमानेन । गमनपरिमाणकरणं मुणव्रतं भवति विज्ञेयम् ।। १९ ।। चातुर्मास आदि समय-विशेष या जीवनपर्यन्त तक के लिये ऊपर, नीचे और तिरछे एक सीमा से अधिक नहीं जाने रूप परिभ्रमण को सीमित करना दिशा परिमाण रूप गुणव्रत है। अणुव्रतों की जो रक्षा करें वे गुणव्रत हैं। परिभ्रमण को सीमित करने से शेष स्थलों पर होने वाले हिंसादि पापों से वह बच जाता है ।। १९ ॥ वज्जइ उड्डाइक्कममाणयणप्पेसणोभयविसुद्धं । तह चेव खेत्तवुड्ढेि कहिंचि सइअंतरद्धं च ।। २० ।। वर्जयति ऊर्ध्वादिक्रममानयनप्रेषणोभयविशुद्धम् । तथैव क्षेत्रवृद्धिं कथञ्चित् स्मृति-अन्तर्धाञ्च ।। २० ।। श्रावक छठे व्रत में त्यक्त क्षेत्र में दूसरे व्यक्ति के द्वारा कोई वस्तु भेजने और वहाँ से कोई वस्तु मँगाने का त्याग करके ऊर्ध्व दिशा प्रमाणातिक्रमण, अधोदिशा प्रमाणातिक्रमण और तिर्यग्दिशा प्रमाणातिक्रमण तथा क्षेत्रवृद्धि और स्मृति अन्तर्धान - इन पाँच अतिचारों का त्याग करता है ॥ २० ॥ भावार्थ - आने-जाने के लिये त्यक्त क्षेत्र में वृद्धि करना क्षेत्रवृद्धि कहलाता है, जैसे - किसी व्यक्ति ने किसी दिशा में सौ योजन आने-जाने की सीमा निश्चित की, किन्तु अपनी आवश्यकतानुसार उससे बाहर के क्षेत्र में जाने हेतु दूसरी दिशा की सीमा कम करके अभीष्ट दिशा की सीमा में वृद्धि करना क्षेत्रवृद्धि नामक अतिचार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001701
Book TitlePanchashak Prakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size24 MB
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