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प्रथम ]
श्रावकधर्मविधि पञ्चाशक
परविवाहकरण अतिचार है। श्रावक इसका त्याग करता है।
५. मैथुन में तीव्र अभिलाषा रखना और तीव्र कामानुभूति के लिये औषधि आदि का प्रयोग करना तीव्रकामाभिलाष अतिचार है। श्रावक इसका भी त्याग करता है ।। १६ ॥
इच्छापरिमाणं खलु असयारंभविणिवित्तिसंजणगं । खेत्ताइवत्थुविसयं चित्तादविरोहओ चित्तं ।। १७ ॥ इच्छापरिमाणं खलु असदारम्भविनिवृत्तिसञ्जनकम् । क्षेत्रादिवस्तु विषयं चित्ताद्यविरोधतः चित्रम् ।। १७ ।।
धन-धान्य, क्षेत्रादि परिग्रह की सीमा का निर्धारण करना पाँचवाँ इच्छापरिमाण (स्थूल-परिग्रह-परिमाण) अणुव्रत है। इस व्रत से अशुभ आरम्भों की निवृत्ति होती है। यह चेतन-अचेतन आदि अनेक वस्तुओं की विविधता के कारण इस व्रत के अनेक प्रकार हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है ।। १७ ।।
खेत्ताइहिरण्णाईधणाइदुपयाइकुप्पमाणकमे । जोयणपयाणबंधणकारणभावेहिं णो कुणई ।। १८ ॥ क्षेत्रादिहिरण्यादि धनादि द्विपदादि कुप्यमानक्रमान् । योजनप्रदानबन्धनकारणभावैः न करोति ।। १८ ।।
पाँचवाँ व्रत लेने वाला श्रावक योजना, प्रदान, बन्धन, कारण और भाव से क्रमशः क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद और कुप्य - इन पाँच प्रकार की वस्तुओं के परिमाण का निर्धारण कर उनकी सीमा का अतिक्रमण नहीं करता अर्थात् उनका एक निश्चित परिमाण से अधिक संचय नहीं करता है ।। १८ ।।
भावार्थ : १. क्षेत्र-वास्तु योजना - एक क्षेत्र (खेत) को दूसरे क्षेत्र से या एक वास्तु (घर) को दूसरे घर से जोड़कर उसके परिमाण का उल्लंघन करने से अतिचार लगता है, अतः श्रावक ऐसा नहीं करता है।
२. हिरण्य-सुवर्ण प्रदान - परिमाण से अधिक अपनी चाँदी और सोना दूसरे को रखने के लिये देना अतिचार है, क्योंकि इस तरह दे देने पर भी वह चाँदी-सोना उसी का होता है, जो रखने को देता है।
३. धन-धान्य का बन्धन - परिमाण से अधिक धन-धान्य आदि को बाँधकर रखने अथवा उसका संग्रह करने से धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण होता है।
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