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पञ्चाशकप्रकरणम्
[प्रथम
सम्यक्त्व के होने पर धर्मशास्त्र को सुनने की इच्छा होती है। धर्म के प्रति श्रद्धा होती है। गुरुओं की सेवा एवं भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा में यथाशक्ति तत्परता रहती है, किन्तु वह श्रावकोचित व्रतों को कभी स्वीकार करता है और कभी स्वीकार नहीं भी करता है ।। ४ ।।।
विशेष : सम्यक्त्व होने पर श्रावक सम्बन्धी व्रतों को वह स्वीकार भी कर सकता है और नहीं भी कर सकता है, क्योंकि व्रतों का स्वीकारपना चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के होने पर होता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम के होने पर होती है। दर्शनमोह के क्षयोपशम आदि के पश्चात् चारित्रमोह का भी क्षयोपशम आदि हो ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। इसलिए सम्यक्त्व के साथ ही व्रत ग्रहण हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।
दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम आदि होने के बाद जब तक चारित्रमोहनीय आदि कर्म का क्षयोपशम आदि न हो तब तक केवल सम्यक्त्व ही होता है, जबकि चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम आदि होने पर सम्यक्त्व और चारित्र - ये दोनों होते हैं।
दर्शनमोह के क्षयोपशम के तुरन्त बाद चारित्रमोह का क्षयोपशम क्यों नहीं होता है, इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि -
जं सा अहिगयराओ कम्मखओवसमओ ण य तओवि । होइ परिणामभेया लहुंति तम्हा इहं भयणा ।। ५ ।। यत् सा अधिकतरात् कर्मक्षयोपशमतो न च ततोऽपि । भवति परिणामभेदाद् लध्विति तस्मादिह भजना ।। ५ ।।।
परिणाम अर्थात् मनोभावों के भेद के कारण ऐसा होता है। दर्शनमोह के क्षयोपशम के लिये जो परिणाम चाहिये, चारित्रमोह के क्षयोपशम के लिये उससे विशेष परिणामों की आवश्यकता होती है। इसलिये जब वे विशेष परिणाम होंगे, तभी चारित्रमोह का क्षयोपशम होगा ॥ ५ ॥
सम्मा पलियपुहुत्तेऽवगए कम्माण भावओ होति । वयपभितीणि भवण्णवतरंडतुल्लाणि णियमेण ॥ ६ ॥ सम्यक्त्वात् पल्यपृथक्त्वेऽपगते कर्मणां भावतो भवन्ति । व्रतप्रभृतीनि भवार्णवतरण्डतुल्यानि नियमेन ॥ ६ ॥
सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के बाद आयुष्य के अतिरिक्त मोहनीय आदि सात कर्मों की दो से नौ पल्योपम जितनी स्थिति शेष रहे, तब संसार-सागर पार
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