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श्रावकधर्मविधि पञ्चाशक
नमिऊण वद्धमाणं सावगधम्मं समासओ वोच्छं । सम्मत्ताई भावत्थसंगयं सुत्तणीईए ॥ १ ॥ नत्वा वर्धमानं श्रावकधर्मं समासतो वक्ष्ये । सम्यक्त्वादि भावार्थसङ्गतं सूत्रनीत्या ।। १ ।।
भगवान वर्धमान महावीर को नमस्कार करके आगमानुसार सम्यक्त्वादि श्रावक-धर्म का भावार्थ सहित संक्षेप में विवेचन करूँगा ।। १ ।।
परलोयहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेई उवउत्तो । अइतिव्वकम्मविगमा सुक्कोसो सावगो एत्थ ।। २ ॥ परलोकहितं सम्यक् यो जिनवचनं शृणोति उपयुक्तः । अतितीव्रकर्मविगमात् सोत्कर्षः श्रावकोऽत्र ।। २ ।।
अति तीव्र कर्म अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश होने पर, जो सम्यक् उपयोगपूर्वक, परलोक के लिये हितकारी जिन-वचन को सुनता है, वह उत्कृष्ट श्रावक है ।। २ ।।
तत्तत्थसद्दहाणं सम्मत्तमसग्गहो ण एयम्मि । मिच्छत्तखओवसमा सुस्सूसाई उ होति दढं ।। ३ ।। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वमसद्ग्रहः न एतस्मिन् । मिथ्यात्वक्षयोपशमात् शुश्रूषादयस्तु भवन्ति दृढम् ।। ३ ।।
तत्त्व के स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इसमें मिथ्यात्व का ग्रहण नहीं होता है, किन्तु मिथ्यात्व के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम हो जाने के कारण धर्मशास्त्र को सुनने की इच्छा दृढ़ हो जाती है ।। ३ ।
सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहिए। वेयावच्चे णियमो वयपडिवत्तीए भयणा उ ।। ४ ।। शुश्रूषा धर्मरागो गुरुदेवानां यथासमाधिः । वैयावृत्ये नियमो व्रतप्रतिपत्तौ भजना तु ।। ४ ।।
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