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भूमिका
५. कायक्लेश शरीर को कष्ट देना कायक्लेश है। किसी भी आसन में बैठकर सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि को सहना कायक्लेश है । इन्द्रिय, कषाय, योग का निरोध करना प्रति
६. प्रतिसंलीनता
संलीनता है, अथवा एकान्त में रहना विविक्त चर्या है ।
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आभ्यन्तर तप
ये तप प्रत्यक्षतः तप रूप में दिखलाई न देने के कारण आन्तरिक तप कहे जाते हैं। इसके भी निम्नलिखित छः प्रकार हैं १. प्रायश्चित्त अपने दुष्कृत्यों को गुरु के समक्ष विशुद्धभाव से कुछ भी छिपाए बिना स्वीकार करना व गुरु से उसके लिये दण्ड लेना प्रायश्चित्त है ।
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२. विनय जिससे मानकषाय को दूर किया जाय वह विनय तप है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वचन, काय और उपचार ये इसके सात भेद हैं । ३. वैयावृत्य . व्यावृत अर्थात् आहार आदि लाकर देने रूप सेवा करना । सेवा की वृत्ति और सेवा के कार्य ही वैयावृत्य हैं । आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष और संघ की वैयावृत्य करनी चाहिए । ४. स्वाध्याय अच्छी तरह मर्यादापूर्वक अध्ययन करना ही स्वाध्याय कहलाता है। इसके वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा . ये पाँच भेद हैं ।
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५. ध्यान चित्त की एकाग्रता ध्यान कहलाती है । इसके आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार भेदों में क्रमशः प्रथम दो संसार के व अन्तिम दो मोक्ष के कारण हैं । अन्तिम दो ही ध्यान रूप तप हैं ।
६. उत्सर्ग
त्याग करना उत्सर्ग है । द्रव्य और भाव उत्सर्ग में क्रमशः गण, देह, आहार और उपाधि तथा चार कषायों का त्याग किया जाता है।
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इस पञ्चाशक में उपर्युक्त बारह प्रकार के तपों के अतिरिक्त भी तपों के प्रकार बताए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं
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प्रकीर्ण तप तीर्थङ्करों द्वारा उनकी दीक्षा, कैवल्यज्ञान-प्राप्ति और निर्वाण प्राप्ति के समय जो तप किये गए थे, उनके अनुसार जो तप किये जाते हैं, वे प्रकीर्णक तप के अन्तर्गत आते हैं ।
तीर्थङ्कर निर्गमन तप जिस तप से तीर्थङ्कर दीक्षा लेते हैं वह तीर्थङ्कर निर्गमन तप कहलाता है। जैसे सुमतिनाथ भगवान् ने नित्यभक्त, वासुपूज्य भगवान् ने उपवास, पार्श्वनाथ और मल्लिनाथ भगवान् ने अट्ठम व बाकी बीस तीर्थङ्करों ने छट्ठ तप करके दीक्षा ली थी ।
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