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भूमिका
लिये नहीं; क्योंकि दशपूर्वधर आदि के लिये प्रतिमाकल्प वर्जित है, अतः वे केवल गच्छ में रहकर ही उपकारक होते हैं । इसलिये प्रतिमाकल्प में गुरुलाघव आदि की विचारणा नहीं हुई है, यह कहना उचित नहीं है। इस समस्या सम्बन्धी दूसरी युक्ति को प्रस्तुत करते हुए आचार्य हरिभद्र ने कहा है जब गच्छ में किसी बहुश्रुत साधु के होने से सूत्रार्थ की वृद्धि हो रही हो और प्रतिमाकल्प स्वीकार करने वाले साधु में दशपूर्व से अधिक श्रुत पढ़ाने की शक्ति न हो, गच्छ बाधारहित हो, अथवा बाल, वृद्ध आदि की सेवा करने वाले हों तथा आचार्यादि गच्छ के पालन में तत्पर हों, कोई नवीन दीक्षा लेने वाला न हो, उस समय ही प्रतिमाकल्प को स्वीकार किया जा सकता है । प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने के बाद ही कर्मों का क्षय होता है । स्थविरकल्प के अनुष्ठान पूर्ण होने पर प्रतिमाकल्प को स्वीकार किया जाता है । प्रतिमाधारी को सदा सूत्रार्थ चिन्तनरूप ध्यान करना चाहिये जो कि रागद्वेष और मोह का विनाशक और मोक्ष का कारण होने से श्रेष्ठ है ।
प्रतिमाकल्प धारण करने में समर्थ साधु को इसे अवश्य स्वीकार करना चाहिये, जो अयोग्य हों उन्हें केवल अभिग्रह विशेष ही ग्रहण करने चाहिये। इन सभी अभिग्रहों को अपनी शक्ति और जिनाज्ञा के अनुसार धारण करने वाले जीव शीघ्र ही संसार-सागर से मुक्त हो जाते हैं ।
एकोनविंश पञ्चाशक
उन्नीसवें पञ्चाशक में 'तपविधि' का वर्णन किया गया है । जिससे कषायों का निरोध हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिनेन्द्रदेव की पूजा हो तथा भोजन का त्याग हो, वे सभी तप कहलाते हैं । बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से तप के दो प्रकार हैं
बाह्य तप
जो तप बाह्य जगत् में तप के रूप में दिखलाई दे उसे बाह्य तप कहते हैं । इसके निम्नलिखित प्रकार हैं १. अनशन भोजन का त्याग करना ही अनशन कहलाता है । यह दो प्रकार का है यावत्कथित अर्थात् जीवनपर्यन्त तक आहार का त्याग तथा इत्वर अर्थात् उपवास से लेकर छः माह तक के लिये आहार का त्याग
करना ।
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४. रसत्याग करना रस त्याग है ।
२. उनोदरी - आवश्यकता से कम खाना उनोदरी है ।
३. वृत्तिसंक्षेप भिक्षाचर्या में विशेष अभिग्रह या नियम लेकर भिक्षा प्राप्त करना वृत्ति संक्षेप है ।
दूध, दही आदि सभी रसों या कुछ रसों का त्याग
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