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________________ ज्ञानार्णवः [१.१०10 ) दुरन्तदुरिताक्रान्तं निःसारमतिवञ्चकम् । __ जन्म विज्ञाय कः स्वार्थे मुह्यत्यङ्गी सचेतनः ॥१० 11 ) अविद्याप्रसरोद्भूतग्रहनिग्रहकोविदम् । ज्ञानार्णवमिमं वक्ष्ये सतामानन्दमन्दिरम् ।।११ परिज्ञानम् । तदेव ध्यानं पिण्डस्थपदस्थादिरूपम् । तदेव परम् उत्कृष्टं मासद्विमासक्षमणादि तपः इति भावार्थः ॥९॥ एतदात्मस्वरूपपरिज्ञानं विना जीवो मोहं यातीत्यतः तदेव दर्शयति ।। 10 ) दुरन्त-सचेतनो अङ्गी प्राणी कः स्वार्थे पुत्रकलत्रद्रव्यादिप्रयोजने विज्ञाय मुह्यति । अपि तु न कोऽपि । जन्म चतुर्गतिसंसारे उत्पत्ति विज्ञाय विशेषेण ज्ञात्वा। कथंभूतं जन्म । दुरन्तानि दृष्टान्तकानि यानि दरितानि पापानि, तैराक्रान्तं व्याप्तम। पनः कथंभतं जन्म । निःसारं निर्गतः सारः परमार्थो यस्मात् तन्निःसारम् । पुनः कथंभूतं जन्म । अतिवञ्चकम् । सम्यग्दर्शनादिधर्मबन्धकमित्यर्थः ॥१०॥ अथ प्रकृतशास्त्रप्रारम्भः क्रियते । 11 ) अविद्याप्रसरोद्भूत-अहं शुभचन्द्राचार्य इमं ज्ञानार्णवशास्त्रं वक्ष्ये कथयामि । थंभतं ज्ञानार्णवशास्त्रम। सतामानन्दमन्दिरम् । सतां सत्पुरुषाणाम् आनन्दमन्दिरं गहम् । पुनः कीदृशम् । अविद्याप्रसरोद्भूतः उत्पन्नः ग्रहः कदाग्रहः, तस्य निग्रहे नाशे कोविदं पण्डितम् ॥११॥ स्वगर्वपरिहारं करोति ग्रन्थकर्ता। है। इनमें प्रवृत्त हो करके भी जो जीव आत्मस्वरूपमें लीन नहीं होता है उसके लिए वे सब व्यर्थ ही ठहरते हैं ॥२॥ .. जन्मस्वरूप यह संसार बहुत कष्टसे नष्ट होनेवाला, पापसे व्याप्त, साररहित और अतिशय धोखा देनेवाला है। इसके स्वरूपको जानकर भला ऐसा कौन सचेतन प्राणी है जो आत्मप्रयोजनमें मोहको प्राप्त होता है ? अभिप्राय यह है कि जो इस संसारके स्वभावको जान करके भी आत्महितमें प्रवृत्त नहीं होता है उसे जड़ जैसा ही समझना चाहिए ॥१०॥ ____ मैं ज्ञानके समुद्रस्वरूप उस ज्ञानार्णव ग्रन्थको कहूँगा जो कि अविद्याके विस्तारसे उत्पन्न हुए दुराग्रहके नष्ट करने में दक्ष एवं सत्पुरुषोंके आनन्दका स्थान है । विशेषार्थ-यहाँ ग्रन्थकार ज्ञानार्णव ग्रन्थके रचनेकी प्रतिज्ञा करते हुए उसकी उपादेयताको प्रगट करते हैं। वे कहते हैं कि जिस ग्रन्थको मैं रचना चाहता हूँ वह दर्शन मोहनीयके उदयजनित मिथ्यादर्शन के अविनाभावी मिथ्याज्ञानके वशीभूत हुए प्राणियोंके एकान्त पक्षको नष्ट करनेवाला है । यह मिथ्यात्व गृहीत और अगृहीतके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें जीवके उपदेशादिके बिना जो अनादि कालसे अतत्त्वश्रद्धान होता है उसका नाम अगृहीत मिथ्यात्व है । यह जीवके जब तक रहता है तब तक वह दुराग्रह के वशीभूत होकर आत्महितके साधनभूत उत्तम ध्यानादिमें प्रवृत्त नहीं होता है। दूसरोंके मिथ्या उपदेशको पाकर जो जीवके तत्त्वका विपरीत श्रद्धान होता है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके वशीभूत हुआ प्राणी दुराग्रही बनता है । १. Y दुरन्तं । २. B J विग्रह । ३. T कोविदः । ४. Y "मिदं वक्ष्ये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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