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१. पीठिका 8 ) प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च ।
सम्यक्तत्त्वोपदेशाय सतां सूक्तिः प्रवर्तते ।।८ 9) तच्छुतं तच्च विज्ञानं तद्धयानं तत्परं तपः।।
अयमात्मा यदासाद्य स्वस्वरूपे लयं व्रजेत् ॥8
विश्वविद्याकुलगृहम् । विश्वे जगति विद्याः सम्यग्दर्शनादिप्रतिपादकानि शास्त्राणि, तेषां कुलगृहमिव कुलगृहम् । पुनः किंविशिष्टम् । भव्या मोक्षगमनयोग्याः, तेषाम् एकम् अद्वितीयं शरणं त्राणमित्यर्थः ।।७।। अथ जिनशासनवदन्येषां वचःप्रमाणं दर्शयति ।
____8) प्रबोधाय-सूक्तिः सम्यग्वचः सतां सत्पुरुषाणां प्रबोधाय प्रकर्षज्ञानाय प्रवर्तते । विशेषणात् चकारः पुनरर्थ सर्वत्र योज्यः। चकारात् विवेकाय सदसद्विचाराय । च पुनः । हिताय हितोपदेशाय। च पुनः । प्रशमाय क्रोधाद्यभावाय । च पुनः । सम्यक्तत्त्वानि जीवाजीवादोनि, तेषामुपदेशाय । प्रवर्तते इति क्रियाध्याहारः सर्वत्र योज्यः । इति तात्पर्यार्थः ॥८॥ अथ सर्वतत्त्वानामात्मनः प्राधान्यख्यापनाय तस्य ध्यानं कथयति।
___9) तच्छ तं तच्च-अनन्तभावपरिच्छेदकशुद्धबोधरूपे अयम् आत्मा यत् स्वमासाद्य लयं साम्यं व्रजेत् । तदा तदेव श्रुतं द्वादशाङ्गार्थपरिज्ञानम् । च पुनः । तदेव विज्ञानं सकलपदार्थसाधारण जनोंके लिए दुरवगाह, व्याकरण-न्यायादि रूप समस्त विद्याओंका साधक तथा अनन्तचतुष्टयस्वरूप लक्ष्मीकी प्राप्तिका कारण है। इसीलिए वही भव्य जीवोंका दुःखसे उद्धार करा सकता है, न कि असर्वज्ञ एवं राग-द्वेष विशिष्ट अन्यके द्वारा प्ररूपित अन्य कोई शासन ॥१॥
सत्पुरुषोंकी सुन्दर वाणी पदार्थों के विशिष्ट ज्ञान, विवेक, हित, कषायोंकी शान्ति तथा समीचीन तत्त्वोपदेशके लिए होती है। विशेषार्थ-पूर्व इलोकके द्वारा जो सर्वज्ञशासनके जयवन्त होनेकी भावना व्यक्त की गयी है। उसके कारणको व्यक्त करते हुए यहाँ यह बतलाया है कि सत्पुरुषोंकी वाणीमें यह विशेषता होती है कि उसका मनन करनेसे जीवोंको पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त होता है। वह पदार्थका ज्ञान भी कोरा ज्ञान न रहकर विवेकको-आत्म-परके भेद विज्ञानको-उत्पन्न करता है। कारण कि अनेक विषयोंमें पारंगत हो करके भी यदि विवेकज्ञान नहीं हुआ तो वह ज्ञान व्यर्थ ही होता है। विवेकके होनेपर हितमें प्रवृत्ति करना आवश्यक है, अन्यथा वह विवेक भी कुछ कार्यकारी नहीं होता। वह सन्तोंकी वाणी विवेकको उत्पन्न करके प्राणीको आत्महितमें प्रवृत्त करती है। इस प्रकारसे जो जीव आत्महित में प्रवृत्त होता है उसकी कषायें उपशान्त हो जाती हैं और तब वह यथार्थ वस्तुस्वरूपके उपदेश का अधिकारी होता है। प्रकृत इलोकसे यह भी भाव प्रगट होता है कि प्रस्तुत ज्ञानार्णव ग्रन्थ परम्परासे प्राप्त उस सर्वज्ञकी ही वाणी है, अतएव इससे भी उक्त पाँचों प्रयोजन-प्रबोध, विवेक, हित, प्रशम और सम्यक् तत्त्वोपदेश-सिद्ध होनेवाले हैं ।।८।।
जिसको प्राप्त करके यह जीव आत्मस्वरूपमें लीन होता है उसे ही यथार्थ श्रुत, उसे ही विज्ञान, उसे ही ध्यान और उसे ही उत्कृष्ट तप समझना चाहिए । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि श्रुत, विज्ञान, ध्यान और तप इन सबका प्रयोजन आत्मस्वरूपमें लीन होना ही
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