SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः [१.६ - 6) श्रुतस्कन्धनभश्चन्द्रं संयमश्रीविशेषकम् । इन्द्रभूतिं नमस्यामि योगीन्द्रं ध्यानसिद्धये ॥६ 7 ) प्रशान्तमतिगम्भीरं विश्वविद्याकुलगृहम् । भव्यकशरणं जीयाच्छ्रीमतसवेज्ञशासनम् ||७ तेषामाकरः समूहः, तत्प्रकाशने चन्द्रमा इव चन्द्रमाः। किंविशिष्टां श्रियम् । भव्याभिनन्दिताम् । भव्यैः अभि सामस्त्येन नन्दिताम् अनुमोदितां वाञ्छिताम् इत्यर्थः ॥५।। तदनन्तरं श्रीवर्धमानप्रथमगणधरं नमस्यति । 6) श्रुतस्कन्ध-अहम् इन्द्रभूति चरमतीर्थकृत्प्रथमगणधरं नमस्यामि । कथंभूतम् इन्द्रभूतिम् । श्रुतस्कन्धं द्वादशाङ्गं तदेव विस्तृतत्वादनन्तान्तित्वा]च्च नभः आकाशं तदुद्द्योतने चन्द्र इव चन्द्रस्तम् । संयमश्रीः चारित्रलक्ष्मीः तस्या विशेषकमिव तिलकमिव स तम् । कस्यै इन्द्रभूति नमस्यामि । योगीन्द्रध्यानसिद्धये । योगीन्द्रा मनोवाक्कायसाधका मुनयः । तेषां ध्यानं शुभशुक्लादिभेदभिन्नं, पिण्डस्थपदस्थादि वा तस्य सिद्धिनिष्पत्तिस्तस्यै इति भावार्थः ॥६॥ अथ प्रथमगणधरादिभिस्तच्छासनमङ्गीक्रियत इत्यतो जिनशासनं वर्णयति । 7) प्रशान्तमति-श्रीमत्सर्वज्ञशासनं जीयात् । सर्वं जानातीति सर्वज्ञः । श्रीः केवलज्ञानविराजमानातिशयरूपा, सा विद्यते यस्यासौ श्रीमान्, स चासौ सर्वज्ञश्च । तस्य शासनमाज्ञा जीयात् । कथंभूतं सर्वज्ञशासनम् । प्रशान्तं, सर्वजीवानां शान्तिनिमित्तम् । पुनः कथंभूतं तच्छासनम् । अतिगम्भीरं, पूर्वापराविरोधिगम्भीरार्थतया अतिगम्भीरम् । पुनः कथंभूतं तच्छासनम् । लक्ष्मीको करें। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमा कुमुदसमूहको प्रफुल्लित करता है उसी प्रकार चूँकि वे वर्धमान जिनेन्द्र भव्य जीवोंको कल्याणका मार्ग (मोक्षमार्ग) दिखलाकर उन्हें प्रफुल्लित करनेवाले हैं, अतएव वे उन्हें उनकी अभीष्ट लक्ष्मी (मोक्षलक्ष्मी ) को करें ॥५॥ जो इन्द्रभूति (गौतम) गणधर द्वादशांग श्रुतरूप आकाशमें चन्द्रके समान प्रकाशमान हैं तथा संयमरूप लक्ष्मीके तिलक जैसे हैं-उसे विशेषता प्रदान करनेवाले हैं-उन योगियोंके इन्द्रस्वरूप गणधरको मैं ध्यानकी सिद्धि के लिए नमस्कार करता हूँ। विशेषार्थ-यह ज्ञानार्णव ग्रन्थ एक ध्यानप्रधान ग्रन्थ है। इन्द्रभूति गणधर चूँकि द्वादशांग श्रुतके रचयिता तथा स्वयं ध्यानके साधक थे, अतएव ग्रन्थकार इस ध्यानग्रन्थ की रचनाके प्रारम्भमें समस्त श्रुतके पारगामी तथा योग (ध्यान) के साधक ऐसे योगियों में अग्रगण्य उन इन्द्रभूति गणधरको उस ध्यानकी सिद्धिके निमित्त नमस्कार करते हैं ।।६।। जो सर्वज्ञका शासन-अनेकान्तात्मक मत-अतिशय शान्त, अधिक गम्भीर, समस्त विद्याओंका कुलगृह, भव्य जीवोंके लिए शरणभूत और लक्ष्मीसे सम्पन्न है, वह जयवन्त रहे। विशेषार्थ-यहाँ ग्रन्थकारने वीतराग सर्वज्ञके द्वारा प्ररूपित जैन शासनके चिरकाल तक जीवित रहनेकी भावना व्यक्त की है। कारण इसका यह है कि वह सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा प्ररूपित होनेसे यथार्थताको प्राप्त होता हुआ भव्य जीवोंको शान्ति प्रदान करनेवाला १. P इन्द्रभूति = गौतमस्वामिनं । २. N ज्ञानसिद्धये। ३. M N कुलं गृहं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy