SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ५ ] १. पीठिका 4 ) सत्संयमपयःपूर पवित्रितजगत्त्रयम् । शान्तिनाथं नमस्यामि विश्वविघ्नौघेशान्तये ॥४ 5 ) श्रियं सकलकल्याणकुमुदाकरचन्द्रमाः । देवः श्रीवर्धमानाख्यः क्रियाद्भव्याभिनन्दिताम् ॥५ 4 ) सत्संयम -- अहं शान्तिनाथं नमस्यामि । किमर्थम् । विश्वे जगति ये विघ्नास्तेषामोघः समूहः, तस्य शान्तये । कीदृशं शान्तिनाथम् । सत्संयमः इन्द्रियाणां स्वविषयनिवृत्तिरूपः, स एव पयःपूरः तेन पवित्रितं पवित्रीकृतं जगत्त्रयं येन स तम् ॥ ४ ॥ तदनन्तरं वर्तमानतीर्थाधिपतित्वेन श्रीवर्धमानं नौति | Jain Education International ७ 5 ) श्रियं सकल – देवः श्रीवर्धमानाख्यः श्रियं क्रियात् । श्रिया वर्धत इति श्रीवर्धमानः । एतच्छास्त्रपाठवतां श्रियं लक्ष्मीं कुर्यात् । कथंभूतो वर्धमानः । सकलकल्याणकुमुदाकरचन्द्रमाः । सकलानि समस्तानि कल्याणानि श्रेयांसि तान्येव कुमुदानि निशि विकासीनि श्वेतकमलानि, मैं 'सब प्रकार के विघ्नोंके समूहको शान्त करनेकी अभिलाषासे समीचीन संयम रूप जल के प्रवाहसे तीनों लोकोंके प्राणियों को पवित्र करनेवाले शान्तिनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार करता हूँ । विशेषार्थ - यद्यपि सब ही तीर्थंकर समानरूपमें अनन्तचतुष्टयसे संयुक्त होते हुए प्राणिमात्र के लिए शान्तिको प्रदान करनेवाले हैं, फिर भी छद्मस्थ जन तत्त्वार्थ श्रद्धानकी किंचित् दुर्बलतासे शान्तिनाथ तीर्थंकरको शान्तिका कर्ता मानते हैं । तदनुसार यहाँ ग्रन्थकर्ता श्री शुभचन्द्राचार्य अभीष्ट ग्रन्थ ज्ञानार्णवकी रचनाको प्रारम्भ करते हुए भगवान् शान्तिनाथ जिनेन्द्र से यह प्रार्थना करते हैं कि वे इसमें उपस्थित होनेवाली सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंको करें । सो है भी यह ठीक, क्योंकि जो समस्त दोषोंको उपशान्त करके स्वयं शान्तिलाभ कर चुका है वही अन्य प्राणियोंको शान्ति प्रदान कर सकता है, न कि दूसरा अशान्त व्यक्ति । जैसा कि स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है- 'स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भवक्लेशभयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥' (स्वयंभूग्तोत्र १० ) । इसके अतिरिक्त यहाँ यह एक विशेषता भी प्रगट की गयी है कि जो जन साधारण विषयभोगोंकी सामग्रीको पाकर उससे उत्पन्न होनेवाले क्षणिक सुखमें मग्न होते हुए उसे नहीं छोड़ना चाहते हैं उनके लिए भगवान् शान्ति जिनेन्द्र के आदर्शको दिखलाते हुए यह बतलाया है कि जो शान्तिनाथ भगवान् तीर्थंकर होने के साथ चक्रवर्ती की भी असाधारण विभूतिके स्वामी थे उन्होंने जब शाश्वतिक निर्बाध सुखके सामने उस सब वैभवको तृणके समान तुच्छ समझकर छोड़ दिया और समीचीन संयमको धारण किया था तब भला साधारण-सी विभूतिको पाकर अन्य जनोंको उसमें इतना व्यामोह क्यों होना चाहिए ? उन्हें भी उसको छोड़कर आत्मकल्याणके लिए उस समीचीन संयमको ग्रहण करना ही चाहिए ||४|| वर्धमान जिनेन्द्र समस्त कल्याणरूप कुमुदसमूहको – चन्द्रविकासी सफेद कमलोंको - विकसित करनेके लिए चन्द्रमाके समान हैं वे अन्तिम जिनेन्द्र भव्य जीवोंसे प्रशंसित १. N विघ्नोपशान्तये । २. M N कुर्याद् भव्या । ३. N भिनन्दिनीम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy