SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः [१.३ - 3 ) भवज्वलनसंभ्रान्तसत्त्वशान्तिसुधार्णवः। देवश्चन्द्रप्रभः पुष्यात् ज्ञानरत्नाकरश्रियम् ॥३ 3 ) भवज्वलन-चन्द्रप्रभो देवः ज्ञानरत्नाकर श्रियं पुष्यात् , पुष्टि नयेत् । चन्द्रप्रभा यस्य स चन्द्रप्रभः, इति नाम्नान्वयः । ज्ञानमेव रत्नाकरः, तस्य श्रियमित्यर्थः । कीदृशः चन्द्रप्रभः । भव एव दुःखदायकत्वात् ज्वलनोऽग्निः, तेन संभ्रान्ता ये सत्त्वाः प्राणिनः, तेषां शान्तौ सुधार्णव इव सुधार्णवः, इति सूत्रार्थः ।।३।। तदनन्तरं शान्तिनाथं प्रणमति । उपाय बतलाकर हम सबके कष्टको दूर करें। इसपर ऋषभदेवने विचार किया कि इस समय भोगभूमिकी अवस्था नष्ट हो चुकी है, अतएव अब पूर्व और अपर विदेहोंमें जिस प्रक असि-मषी आदि छह कर्मों की स्थिति है उसी प्रकार उसकी प्रवृत्ति यहाँ भी करनी चाहिए । तदनुसार उन्होंने प्रजाजनको उन छह कर्मोंके स्वरूपको विस्तारपूर्वक समझाकर उनको आनन्दित किया था। उधर भगवान्के चिन्तन मात्रसे इन्द्रने आकर देश, नगर एवं ग्राम आदिकी रचना कर दी थी। यह अभिप्राय उक्त 'भुवनाम्भोजमार्तण्ड' रूप प्रथम विशेषणमें निहित है। तत्पश्चात् जब उन्हीं ऋषभ जिनेन्द्रने जिनदीक्षाको स्वीकार कर तपश्चरणके द्वारा केवल ज्ञानको प्राप्त कर लिया था तब उन्होंने धर्मरूप अमृतकी वर्षा करके विश्वका कल्याण किया था। इसीलिए वे योगीजनोंके लिए कल्पवृक्ष प्रमाणित हुए। अभी तक भोगभूमिकी प्रवृत्ति रहनेस योगका मार्ग बन्द हो रहा था--उसे कोई भी नहीं जानता था। तब सर्वप्रथम उन आदि जिनेन्द्रने उक्त योगमार्गको अपनाकर-दिगम्बर धर्मको स्वीकार कर-उसे आदर्श रूपमें स्वयं ही प्रचलित किया था। इस प्रकारसे वह अन्य मुमुक्षु योगीजनोंके लिए सुगम बन गया था। यह भाव उक्त श्लोकके अन्तर्गत अन्तिम दो विशेषणोंका समझना चाहिए ॥२॥ ___ जो चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र संसाररूप अग्निके मध्य में भ्रमण करते हुए जीवोंके लिए शान्तिरूप सुधा (अमृत) के समुद्र समान हैं वे ज्ञानरूप समुद्रकी लक्ष्मीको पुष्ट करें। विशेषार्थआठवें जिनेन्द्रका नाम चन्द्रप्रभ है । चन्द्रप्रभका अर्थ होता है चन्द्रमाके समान प्रभावाला। तदनुसार वे भगवान् जब चन्द्रमाके समान हैं तब जिस प्रकार चन्द्रमा समुद्रको वृद्धिंगत करता है उसी प्रकार वे भगवान् मेरे ज्ञानरूप समुद्रको वृद्धिंगत करें ऐसी प्रार्थना यहाँ ग्रन्थकार श्री शुभचन्द्राचार्य के द्वारा की गयी है। साथ ही यहाँ जिस 'ज्ञान-रत्नाकर' शब्दका प्रयोग किया है वह रनेके लिए अभीष्ट प्रकृत ग्रन्थ ज्ञानार्णवका पर्यायशब्द है। अतएव उससे यह भी ध्वनित होता है कि वे भगवान हमारे इस अभीष्ट ग्रन्थ ज्ञानार्णवको पुष्ट करें-उसकी सुन्दर व परिपुष्ट रचनामें मुझे सहायता प्रदान करें। इसके अतिरिक्त चन्द्र का दूसरा नाम सुधासूति-अमृतको उत्पन्न करनेवाला-भी है। अतएव जिस प्रकार चन्द्रमा अमृतकी वर्षा करके सन्तप्त प्राणियोंको शान्ति प्रदान किया करता है उसी प्रकार उस चन्द्रकी समानताको धारण करनेवाले वे जिनेन्द्र भी संसार-तापसे सन्तप्त प्राणियों को शान्ति प्रदान करते हैंउन्हें मोक्षमार्गका उपदेश देकर शाश्वतिक सुखको देते हैं ॥३॥ १. M N भवभ्रमण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy