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________________ -२] १. पोठिका 2 ) भुवनाम्भोजमार्तण्डं 'धर्मामृतपयोधरम् । योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् ॥ २ 2 ) भुवनाम्भोज-अहं वृषध्वज नौमि । वृषं पुण्यं, उत वृषो वृषभः, स तद्वा ध्वजः चिह्न यस्य स तम् । किंविशिष्टम् । भुवनाम्भोजमार्तण्डं, भुवनं जगत् तदेव प्रकाशनसाधात् अम्भोज कमलं तत्र मार्तण्ड इव मार्तण्डः तम् । पुनः कीदृशम् । धर्मो यतिगृहिभेदाद्विविधः । स एव जन्मजरामरणापहारकत्वादमृतं, तेन पयोधरवत् पयोधरस्तम् । पुनः कीदृशं वृषध्वजम् । योगिकल्पतरुम् । योगाः स्वस्वविषयेभ्यो निवृत्ता मनोवाक्कायरूपाः ते विद्यन्ते येषां ते योगिनस्तेषामभिमतसंपादने कल्पतरुरिव कल्पतरुस्तम् । पुनः कीदृशम् । देवदेवम् । देवा भवनपत्यादयः, तैर्दीव्यत इति देवदेव: तम् । इति द्वितीयश्लोकार्थः ॥२॥ श्रीयुगादिदेवानन्तरं त्रयोविंशतितीर्थंकराणां भावनमस्कारं विधाय, विशेषतस्तन्मध्ये चन्द्रप्रभशान्तिवर्धमानानां भावनमस्कारपूर्वं तद्गुणस्तुतिरूपद्रव्यनमस्कारं विवक्षुः तत्र यथोद्देशं निर्देशन्यायेन यथापूर्वं चन्द्रप्रभं नमस्करोति । कृतकृत्य । इससे यह भाव प्रगट किया है कि उक्त परमात्मा राग-द्वेषसे रहित होकर चूंकि अपने अभीष्ट अन्तिम प्रयोजनको सिद्ध कर चुका है अत एव वह कृतार्थ हो जानेसे राग-द्वेषकी हेतुभूत सृष्टिका कर्ता नहीं है। तीसरे 'अज' विशेषणसे यह सूचित किया है कि मुक्त या सिद्ध हो चुकनेके बाद जीवका संसार में पुनरागमन नहीं होता । अन्तिम उसका विशेषण 'अव्यय' है। उसका अभिप्राय यह है कि, वह परमात्माकी मुक्ति दीपकके बुझ जानेके समान शून्य या अभावस्वरूप नहीं है, किन्तु उक्त मुक्त अवस्थामें जीव अपने ज्ञानादि गुणोंसे अभिन्न होकर अनन्त कालतक उसी स्वरूपमें अवस्थित रहता है ।। १॥ वृष (बल) के चिह्नको धारण करनेवाला जो देवोंका देव ऋषभ जिनेन्द्र समस्त लोकरूप कमलको विकसित करनेके लिए सूर्य के समान है, धर्मरूप अमृतकी वर्षा करनेके लिए मेघके समान है, तथा योगी जनोंके मनोरथको पूर्ण करनेके लिए कल्पवृक्षके समान है, उसे मैं नमस्कार करता हूँ। विशेषार्थ--इस श्लोकके द्वारा वृषध्वज-बैलके चिह्न के धारक अथवा धर्मरूप ध्वजाके धारक-प्रथम जिनेन्द्रको नमस्कार किया गया है । जिस प्रकार सूर्य उदयको प्राप्त होकर समस्त कमलोंको प्रफुल्लित कर देता है उसी प्रकार उन प्रथम जिनेन्द्रने तीर्थकरत्वरूप अभ्युदयको प्राप्त होकर संसारके समस्त प्राणियोंको प्रफुल्लित किया थाउन्हें यथार्थ सुखके स्वरूप और उसकी प्राप्तिके उपायको बतलाकर आनन्दित किया था। इस भरत क्षेत्रमें जब सुषमदुःषमा कालके समाप्त होने में पल्यका आठवाँ भाग (2) शेष रह गया था तबसे यहाँ दस प्रकारके कल्पवृक्षोंकी फलदानशक्ति क्रमशः उत्तरोत्तर क्षीण होने लगी थी। अन्त में वे प्रजाजनोंको यथेच्छ भोजनादिके देनेमें सर्वथा असमर्थ हो गये थे। तब भूख आदिकी बाधासे व्याकुलताको प्राप्त हुए प्रजाजन नाभिराजकी शरणमें आये । उन्होंने उन्हें भगवान् ऋषभदेवके समीपमें जानेका संकेत किया। तदनुसार वे भगवान् ऋषभदेवकी शरणमें पहुँचे । उन सबने उनसे प्रार्थना की कि भगवन् ! जिन कल्पवृक्षोंके द्वारा हमारी आजीविका सम्पन्न होती थी वे सब नष्ट हो चुके हैं, अतएव आप हमें आजीविकाके १. B मार्तण्डधर्मामृत । २. c योगकल्प । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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