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________________ ज्ञानार्णवः [१.१ - 1 )'ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितम् । निष्ठितार्थमजं नौमि परमात्मानमव्ययम् ॥ १ ____1) ज्ञानलक्ष्मी-अहं परमात्मानं नौमीति संबन्धः । परमश्चासौ आत्मा च परमात्मा, तं परमात्मानं परमेष्ठिनं नमस्करोमि। किविशिष्टम् । ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितम् । ज्ञानं केवलज्ञानम् । शेषज्ञानानां परमात्मन्यसंभवात् । उपलक्षणात् केवलदर्शनमपि । तस्य लक्ष्मीः चिदानन्दरूपा. तस्या यो घनाश्लेषो निबिडालिङनं. तस्मात्प्रभवो य आनन्दः तेन नन्दितं मदितम् । पुनः किंविशिष्टं परमात्मानम् । निष्ठितार्थ निष्पन्नप्रयोजनम् । पुनः कीदृशं परमात्मानम् । अजं स्वयंभुवं, नष्टकर्मबीजत्वात् जन्मरहितम् । पुनः कीदृशम् । अव्ययं नाशरहितं, नित्यस्वरूपत्वात् । इति श्लोकार्थः ॥१॥ अत्र शास्त्रादौ विषयप्रयोजनसंबन्धाधिकारिभेदात् संबन्धचतुष्टयं वक्तव्यम् । अत्र विषयः, परमात्मस्वरूपपरिज्ञानम् । प्रयोजनम्, अष्टकर्मक्षयात् केवलज्ञानोत्पत्तिः, घात्यघातिविशेषणद्वयं योज्यं, मोक्षप्राप्तिर्वा । संबन्धस्तु ध्यानध्यायकरूपो वाच्यवाचकरूपो वा। सम्यग्दर्शनपूर्वकध्यानध्याता अधिकारी । अथ सकलजगद्व्यवहारप्रवर्तकप्रथमधर्मादिकर्तृत्वेन प्रथमतीर्थंकरमादिनाथं नमस्करोमि। [ हिन्दी अनुवाद] मैं ( शुभचन्द्र ) उस परमात्माको नमस्कार करता हूँ जो कि ज्ञानरूप लक्ष्मीके दृढ़ आलिंगनसे उत्पन्न होनेवाले सुखसे आनन्दको प्राप्त है, जिसने अपने अभीष्ट प्रयोजनको सिद्ध कर लिया है, तथा जो अज अर्थात् जन्मसे रहित होता हुआ अव्यय भी है-मरणसे भी रहित हो चुका है। विशेषार्थ-यहाँ 'परमश्चासौ आत्मा परमात्मा' इस प्रकार कर्मधारय समास करनेपर 'परमात्मा का अर्थ उत्कृष्ट आत्मा होता है। अथवा 'मा' का अर्थ लक्ष्मी होता है, अत एव 'परा मा यस्य असौ परमः, परमश्चासौ आत्मा परमात्मा' इस निरुक्ति के अनुसार जो अनन्तचतुष्टयस्वरूप लक्ष्मीसे सहित है वह परमात्मा कहा जाता है । वह सकल परमात्मा और विकल परमात्माके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें जो ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंसे रहित होता हुआ अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप अनन्तचतुष्टयसे संयुक्त हो चुका है वह सकल परमात्मा कहलाता है। उसे अरिहन्त, जिन, केवली और आप्त आदि शब्दोंसे कहा जाता है। तथा जो आठों कर्मोंसे मुक्त होकर सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदशन, अव्याबाध सुख, अनन्तवीय, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व और अगुरुलघुत्व इन आठ गुणोंसे विभूषित हो चुका है उस शरीररहित सिद्ध परमात्माको विकल परमात्मा कहते हैं। यहाँ जो उस परमात्माका ज्ञानलक्ष्मीसे आलिंगितरूप प्रथम विशेषण दिया गया है उससे यह अभिप्राय प्रगट किया है । उक्त परमात्मा रागद्वेषसे रहित हो जानेके कारण स्त्रीरूपको धारण करनेवाली लक्ष्मीसे आलिंगित नहीं है। किन्तु समस्त विश्वके जानने में समर्थ ऐसे ज्ञान ( सर्वज्ञता ) रूप लक्ष्मीसे आलिंगित है। और इसीलिए वह अविनश्वर निराबाध सुखसे सदा प्रमुदित रहनेवाला है। दूसरा विशेषण है निष्ठितार्थ, जिसका अर्थ होता है १. P ओं नमो वीतरागाय, N श्रीशान्तिनाथाय नमः, जिनेन्द्रवाण्यै नमः, Lओं नमः सिद्धेभ्यः, S ओं नमः सिद्धाः, Tओं नमः सिद्धेभ्यः । श्रीपरमात्मने नमः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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