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________________ -१४] १. पीठिका 12 ) अपि तीर्येत बाहुभ्यामपारो मकरालयः। न पुनः शक्यते वक्तुं मद्विधैर्योगिरञ्जकम् ॥१२ 13 ) महामतिभिर्निःशेषसिद्धान्तपथपारगैः।। क्रियते यत्र दिग्मोहस्तत्र को ऽन्यः प्रसर्पति ॥१३ अन्यच्च14 ) समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मयः। वजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः।।१४ 12 ) अपि तोर्येत-मद्विधैर्योगिरञ्जकं वक्तुं कथयितुं न शक्यते । पुनः पादपूरणे । बाहुभ्यां मकरालयः समुद्रः तीर्येत । अपि पक्षान्तरे । कथंभूतो मकरालयः । अपारः पाररहितः, इति श्लोकार्थः ॥१२॥ आत्मव्यतिरिक्तपण्डितानां महत्त्वं दर्शयति । 13 ) महामतिभिः-तत्र शास्त्रकथनेऽस्मादशः कथं प्रवर्तन्ते । न कथमपीति भावः। यत्र ज्ञानार्णवे महामतिभिः पण्डितैः सिद्धान्तपारंगतैः दृङ्मोह इदं भवति वा न वा इति क्रियते । इति श्लोकार्थः ॥१३॥ अथ सकलशास्त्रज्ञसमन्तभद्रादिकानां गुणं स्तौति । 14 ) समन्तभद्रादि-यत्र शास्त्रार्थपरिज्ञाने समन्तभद्रादिकवीन्द्रसूर्याणाम् अमलसुभाषितकिरणाः स्फुरन्ति, तत्र जना मद्विधा खद्योतवत् हास्यतां किं न व्रजन्ति । अपि तु व्रजन्त्येव । कथंभूता जनाः। ज्ञानलवोद्धताः ज्ञानलवादहंकारिणः । इति सूत्रार्थः ॥१४॥ तदनन्तरं देवनन्दिनं नमस्यति । वह कथंचित् सत्-असत्, नित्य-अनित्य, भेद-अभेद एवं शुद्ध-अशुद्ध आदि अनेक धर्मात्मक वस्तुको उस रूप न मानकर सर्वथा एकान्तरूप हो ग्रहण करता है। इससे जो उसके आर्त व रौद्र ध्यान होता है उसके कारण उसे धर्म व शुक्ल रूप समीचीन ध्यानकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसीलिए यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि यह ज्ञानार्णव ग्रन्थ उनके उपर्युक्त दुराग्रहको नष्ट करके उन्हें समीचीन ध्यानमें प्रवृत्त करेगा। इस प्रकारसे यह ग्रन्थ उनके संसार तापको नष्ट करके उन्हें यथार्थ सुखकी प्राप्तिका साधन होगा ॥११॥ ___ कदाचित् दोनों भुजाओंसे तैरकर अपार समुद्रको पार किया जा सकता है, परन्तु मुझ जैसे मन्दबुद्धि जन योगीजनको अनुरंजित करनेवाले इस ज्ञानार्णव ग्रन्थको नहीं कह सकते हैं ॥१२॥ जिस ज्ञानार्णवकी रचनामें अतिशय बुद्धिमान् व परमागमके पथके पार पहुँचे हुए बहुश्रुत विद्वान् भी दिशाभ्रमको प्राप्त होते हैं वहाँ अन्य अल्पज्ञ कौन चल सकता है ? नहीं चल सकता है ॥१३॥ ___ जहाँ स्वामी समन्तभद्र आदि बड़े-बड़े कवियोंरूप सूर्योंकी निर्दोष सूक्ति (सुभाषित) रूप किरणें प्रकाशमान हैं वहाँ थोड़े-से ज्ञानपर गर्वको प्राप्त हुए दूसरे जन क्या जुगनूके समान हँसीके भाजन नहीं बनेंगे ? अवश्य बनेंगे ॥१४।। १. N पदपारगैः । २. B दृग्मोहः । ३. F B C ] प्रवर्तते । ४. Only in P M X Y अन्यच्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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