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________________ ६७० ज्ञानार्णवः 2119) न पश्यति तदा किंचिन्न शृणोति न जिघ्रति । स्पृष्टं किंचिन्न जानाति साक्षान्निर्वृत्तेलेपवत् || ६२ || इति । (2120) आद्यसंहननोपेता निर्वेदपदवीं श्रिताः । कुर्वन्ति निश्चलं चेतः शुक्लध्यानक्षमं नराः ॥७ 2121) सामग्र्योरुभयोर्ध्यातुर्ध्यानं बाह्यान्तरङ्गयोः | 'पूर्वयोरेव शुक्लं स्यान्नान्यथा जन्मकोटिषु ||८ 2122) अतिक्रम्य शरीर। दिसंगानात्मन्यवस्थितः । नैवाक्षमनसोर्योगं करोत्येकाग्रतां श्रितः ॥ ९ 9 2119 ) न पश्यति न जिघ्रति नाघ्राति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥ ६२॥ अथ पुनराह । (2120 ) आद्यसंहननोपेताः - नराः शुक्लध्यानक्षमं समर्थ, निश्चलं कुर्वन्ति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥७॥ अथ पुनराह । [ ३८.६२ 2121 ) सामग्र्योरुभयोः - बाह्याभ्यन्तरयोः सामग्र्योः उभयोः ध्यानं पूर्वयोः एव शुक्लं ध्यानं स्यात् । जन्मकोटिषु न अन्यथा । इति सूत्रार्थः ||८|| अथ पुनस्तदेवाह । (2122 ) अतिक्रम्य - अतिक्रम्य त्यक्त्वा । शरीरादिसंगान् आत्मनि अवस्थितः अक्षमनसोः इन्द्रियमनसोः योगं करोति । कीदृशः । एकाग्रतां श्रितः । इति सूत्रार्थः ॥ ९॥ अथ पुनराह | 1 अपनेको सर्वथा पृथक मानता हुआ वर्षा एवं वायु आदिके दुःखोंसे भी विचलित नहीं होता है । वह उस समय लेपक्रियासे भित्तिपर निर्मित चित्रके समान न घातककी ओर देखता है, न कुछ सुनता है, न सूँघता है, और न शरीरसे स्पृष्ट किसी शस्त्रादिका भी अनुभव करता ।।६*१-२।। जो मनुष्य प्रथम ( वज्रर्षभनाराच ) संहननसे संयुक्त होकर वैराग्य मार्गका आश्रय लेते हैं वे अपने मनको स्थिर करके उसे शुक्लध्यान करनेमें समर्थ कर लेते हैं ||७| इन बाह्य (प्रथम संहनन ) और अन्तरंग ( वैराग्यभाव ) स्वरूप पूर्वोक्त दोनों सामग्रियोंके होनेपर ध्याता (योगी) के शुक्लध्यान होता है । उनके बिना करोड़ों जन्मों में भी वह किसी योगीके सम्भव नहीं है ॥ ८ ॥ Jain Education International शरीरादि परिग्रहोंको छोड़कर - उनमें निर्ममत्व होकर - आत्मस्वरूप में अवस्थित हुआ योगी एकाग्रताका आश्रय लेकर इन्द्रिय और मनके संयोगको नहीं करता है - इन्द्रियोंसे विषयोंको देखता - जानता हुआ भी उनके विषय में मनसे राग-द्वेषको नहीं प्राप्त होता है ||९|| १. M N T J X Y R निर्वृत्त, I निर्वृत, S निवृत, F निर्वृति । २. PM इति । ३. M N ध्यातं for ध्यातु, L°योर्ध्यानं नृणां बाह्यां । ४. F पूर्णयो । ५. MN मानस:, SJ X Y R प्रताश्रितः । ० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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