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________________ प्रस्तावना ५७ उसे प्रथम समापत्ति के समान सवितर्क कहा गया है । तथा उक्त योगसूत्र के अनुसार जिस प्रकार वे विकल्प द्वितीय समापत्ति में नहीं रहते, इसीसे उसे अविचार कहा गया है उसी प्रकार द्वितीय शुक्लध्यान में भी चूँकि वे विकल्प नहीं रहते, इसीसे उसे भी अविचार कहा गया है । २ 3 उक्त निर्विचार समापत्ति में निर्मलता के प्रादुर्भूत होनेपर योगसूत्र के अनुसार अध्यात्मप्रसाद होता है - चित्त कलेश वासनाओंसे रहित हो जाता है । इस अध्यात्मप्रसादके प्रादुर्भूत हो जानेपर ऋतंभरा प्रज्ञा - यथार्थता से परिपूर्ण ज्ञान-प्रकट हो जाता है । इस ऋतंभरा प्रज्ञाका विषय श्रुतप्रज्ञा और अनुमान प्रज्ञासे भिन्न होता है। इसका कारण यह है कि उक्त दोनों प्रज्ञाएँ सामान्यको विषय करती हैं - इन्द्रियाश्रित होनेसे उनका क्षेत्र व काल सीमित है, इससे वे सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंकी विशेषताओं को नहीं जान सकती हैं । परन्तु वह ऋतंभरा प्रज्ञा इन्द्रियातीत होनेके कारण उक्त सूक्ष्मादि पदार्थों के भी ग्रहण में समर्थ हैं। उसके प्रादुर्भूत हो जानेपर पूर्वकी समस्त वासनाएँ समाप्त हो जाती हैं । इस क्रमसे पूर्वोक्त सवितर्क आदि चार समापत्तिस्वरूप संप्रज्ञात योगका निरोध हो जानेपर चूँकि सभी चित्तवृत्तियोंका निरोध हो जाता है इसीसे उस समय निर्बीज समाधि - निरालम्ब ध्यान — प्रादुर्भूत होता है ।" ४ ज्ञानार्णव आदि अनेक जैन ग्रन्थोंमें जो सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ती इन दो शुक्लध्यानों की प्ररूपणा की गयी है वह उपर्युक्त योगसूत्रप्ररूपित प्रक्रिया से बहुत कुछ मिलती-जुलती है । ये दोनों ध्यान, मोह और अज्ञान (अल्पज्ञता ) के पूर्णतया विनष्ट हो जानेपर केवलीके हुआ करते हैं । बे केवली उन सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थगत सभी विशेषताओंको जानते हैं, जिनका निर्देश योगसूत्र व उसके भाष्य आदिमें किया गया है १-४९ । इस केवलज्ञानके प्रकट हो जानेपर मोह और अज्ञानजनित समस्त वासनाएं विलीन हो जाती । इससे उसे जैसे योगसूत्र (१-५१) के भाष्य में शुद्ध केवली व मुक्त कहा गया है वैसे ही ज्ञानार्णव आदि अनेक जैन ग्रन्थों में भी उसे शुद्ध, केवली व मुक्त कहा गया है ( 2171-75 व 21982201) I चार भावनाएँ - योगसूत्र में चित्तप्रसादकी कारणभूत मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार भावनाओं का परिकर्मके रूपमें निर्देश किया गया है (१-३३) । arrant सिद्धि के लिए इन चार भावनाओंका निर्देश ज्ञानार्णवमें भी इन्हीं शब्दोंके द्वारा किया गया है तथा यथाक्रमसे उनका स्वरूप भी प्रकट कर दिया गया है ( 1270-85 ) । अहिंसामाहात्म्य - योगसूत्र में अहिंसामहाव्रत के प्रसंग में यह कहा गया कि अहिंसाका चिन्तन १. निर्विचार वैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः । यो. सू. १-४७ । ( यदा निर्विचारस्य समाधेर्वेशारद्यं जायते तदा योगिनो भवत्यध्यात्मप्रसादो भूतार्थविषयः क्रमाननुरोधी स्फुट: प्रज्ञालोकः — भाष्य ) । २. ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा । यो. सू. १-४८ । ( अन्वर्था च सा, सत्यमेव बिर्भात न च तत्र विपर्यासज्ञानगन्धोऽप्यस्तीति - भाष्य ) । ३. श्रुतानुमान प्रज्ञाभ्यामन्यविषया, विशेषार्थत्वात् । यो. सू. १-४९ । ४. xxx इयं पुनर्निर्विचार वैशारद्यसमुद्भवा प्रज्ञा ताभ्यां विलक्षणा, विशेषविषयत्वात् । अस्यां हि प्रज्ञायां सूक्ष्म-व्यवहित- विप्रकृष्टानामपि विशेषः स्फुटेनैव रूपेण भासते । यो. सू. भोजवृत्ति १ - ४९ । ( आ. समन्तभद्रने उक्त सूक्ष्मादि पदार्थों में प्रत्यक्षविषयताको सिद्ध करते हुए सर्वज्ञकी सिद्धि की है-आप्तमी. ५ । ) ५. तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः । यो सू. १-५१ । [८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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