SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानार्णवः ८. समाधि-योगसूत्रमें समाधिके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि उपर्युक्त ध्यान ही ध्येय अर्थके आकारके प्रतिभासरूप होकर जब स्वरूपसे शून्यके समान हो जाता है-ध्यान-ध्येय अथवा ज्ञान-ज्ञेयके विकल्पसे रहित हो जाता है तब उसे समाधि कहा जाता है। . ज्ञानार्णवके अनुसार इस समाधिका स्वरूप शुक्लध्यानमें निहित है। योगसूत्र में समाधिके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-सबीज समाधि और निर्बोज समाधि । दूसरे शब्दोंमें इन्हें सालम्बन ध्यान और निरालम्बन ध्यान कहा जा सकता है। जिस प्रकार स्वच्छ स्फटिक मणिके सामने काला-नीला आदि जैसा भी पदार्थ आता है उसके आश्रयसे वह स्वच्छ स्फटिक मणि भी उसके उपरागसे उपरक्त होकर तदरूप परिणत हो जाता है, इसी प्रकार योगीका निर्मल चित्त भी ग्राह्य (स्थूल व सूक्ष्म ध्येय), ग्रहण ( इन्द्रिय ) और गृहीता (पुरुष) इनमें से जिसका आलम्बन लेता है तद्रूपताको प्राप्त हो जाता है। इसका उल्लेख योगसूत्र में समापत्ति शब्दसे किया गया है। वह समापत्ति सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचारके भेदसे चार प्रकारकी है। इनमें स्थूल अर्थ ( महाभूत व इन्द्रियाँ ) को विषय करनेवाली सवितकं समापत्ति जहाँ शब्द, अर्थ और ज्ञानविकल्पोंसे संकीर्ण रहती है वहाँ निवितर्क समापत्ति उक्त विकल्पोंसे रहित होती हई स्वरूपसे शून्यके समान अर्थके प्रतिभासरूप है।' सविचार समापत्तिका स्वरूप सवितर्क समापत्तिके समान और निर्विचार समापत्तिका स्वरूप निर्वितर्क समापत्तिके समान है। विशेष इतना है कि सवितर्क और निर्वितर्क समापत्तियाँ जहाँ स्थूल ( महाभूत और इन्द्रियों) को विषय करती है वहाँ सविचार और निर्विचार समापत्तियां सूक्ष्म ( तन्मात्रा और अन्तःकरण ) को विषय करती हैं। इन चारों समापत्तियोंको सबीज या संप्रज्ञात समाधि कहा गया है। इस संप्रज्ञातका निरोध हो जानेपर समस्त चित्तवृत्तियोंके हट जानेसे निर्बीज या असंप्रज्ञात समाधिका प्रादुर्भाव होता है, जिसमें पुरुष स्वरूपनिष्ठ हो जाता है। इसीसे उसे शुद्ध, केवली व मुक्त कहा जाता है। प्राचीन जैन आगम परम्पराके अनुसार ज्ञानार्णवमें जिस शुक्लध्यानका निरूपण किया गया है वह योगसूत्रप्ररूपित पूर्वोक्त समाधिकी प्रक्रियासे बहुत कुछ समानता रखता है। जैसे-ज्ञानार्णवमें शुक्लध्यानके ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-सवितर्क-सविचार-सपृथक्त्व, सवितर्क-अविचार-अपृथक्त्व, सूक्ष्मक्रिया, प्रतिपाती और समुच्छिन्नक्रिय। इनमें प्रथम शुक्लध्यान शब्द, अर्थ और ज्ञान विकल्पोंसे संकीर्ण पूर्वोक्त सवितर्क समापत्ति जैसा तथा द्वितीय शुक्लध्यान उक्त विकल्पोंसे रहित निर्वितर्क समापत्ति जैसा है। ज्ञानार्णवमें इन विकल्पोका निर्देश अर्थसंक्रमण, व्यंजन ( शब्द ) संक्रमण और योगसंक्रमण इन पारिभाषिक शब्दोंके द्वारा किया गया है । योगसूत्रके अनुसार जिस प्रकार स्थूलको विषय करनेवाली प्रथम सवितर्क समापत्ति में शब्द, अर्थं और ज्ञान विकल्प बने रहते हैं उसी प्रकार प्रथम शुक्लध्यानमें भी उक्त विकल्प बने रहते हैं। इसीसे १. तदेवार्थनिर्भासं स्वरूपशन्यमिव समाधिः । यो. सू. ३-२ । २. क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्गृहीतृ-ग्रहण-ग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः । यो. सू. १-४१ । ३. तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः । स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का । यो. सू. १, ४२-४३ । ४. एतयैव सविचारा निविचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता । यो. स.१-४४ । ५. ता एव सबीजः समाधिः । यो. सू. १-४६ ( ता एवोक्तलक्षणा समापत्तयः, सह बीजेनाऽऽलम्बनेन वर्तत इति सबीजः संप्रज्ञातः समाधिरित्युच्यते, सर्वासां सालम्बनत्वात् -भोज-वृत्ति)। ६. तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः । यो. सू. १-५१ । ( xxxतस्मिन् (चित्ते ) निवत्ते पुरुषः स्वरूपमात्रप्रतिष्ठोऽतः शुद्धः केवली मुक्त इत्युच्यते इति-व्यासभाष्य) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy