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प्रस्तावना
ज्ञानार्णवमें इस प्राणायामकी प्रशंसा करते हुए उसके पूरक, कुम्भक और रेचक इन तीन भेदोंके निर्देशपूर्वक उनका पृथक-पृथक् स्वरूप भी दिखलाया गया है । आगे वहाँ पार्थिव आदि चार मण्डलों व वायुके संचारसे सूचित शुभा-शुभादिकी काफी विस्तारसे चर्चा की गयी है ।
५. प्रत्याहार-योगसूत्र में प्रत्याहारके प्रसंगमें उसके स्वरूपका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि अपने विषयमें चित्तके संप्रयोगका अभाव हो जानेपर-उसका निरोध हो जानेसे-इन्द्रियाँ भी जो उस चित्तका अनुसरण कर विषयोंकी ओरसे विमुख हो जाती है, इसका नाम प्रत्याहार है। इस प्रकार वे इन्द्रियाँ पूर्ण रूपसे स्वाधीन हो जाती हैं।
योगसूत्र के समान ज्ञानार्णवमें भी प्रत्याहारके लक्षणमें यही कहा गया है कि योगी इन्द्रियोंके साथ मनको इन्द्रियविषयोंकी ओरसे हटाकर उसे इच्छानुसार जहाँ धारण करता है उसे प्रत्याहार कहा जाता है। इस प्रकार मनके स्वाधीन कर लेनेपर योगी कछवेके समान इन्द्रियोंको संकुचित करके समताभावको प्राप्त होता हुआ ध्यानमें स्थिर हो जाता है।
६. धारणा-योगसूत्रमें धारणाके स्वरूपको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि चित्तको जो नाभिमण्डल, हृदय-कमल, शिर और नासिकाके अग्रभाग आदि देशोंमें बाँधा जाता है; इसका नाम धारणा है ।
ज्ञानार्णवमें धारणाका शब्दसे निर्देश न करके यह जो कहा गया है कि जितेन्द्रिय योगी विषयोंको ओरसे इन्द्रियोंको, तथा उन इन्द्रियोंकी ओरसे निराकुल मनको पृथक् करके उसे निश्चलतापूर्वक ललाट देशमें धारण करता है, यह धारणाका ही स्वरूप है। आगे वहाँ नेत्रयुगल, कर्णयुगल, नासिकाका अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, शिर, हृदय, तालु और भृकुटियुगल; इन शरीरगत ध्यानस्थानोंका निर्देश भी कर दिया गया है जहाँ चित्तको धारण किया जाता है।
७. ध्यान-योगसूत्र में ध्यानके लक्षणमें यह कहा गया है कि धारणामें जहाँ चित्तको धारण किया गया है उस देशमें ध्येयका आलम्बन लेनेवाले प्रत्ययका अन्य प्रत्ययोंसे अपरामृष्ट रहते हुए जो सदश प्रवाह चलता है उसका नाम ध्यान है। इसका अभिप्राय यह है कि धारणामें पूर्वोक्त नाभिचक्रादि देशोंमें-से जिसमें चित्तको स्थिर किया गया है वहींपर एकाग्रतासे चिन्तन करते हुए स्थिर रहना व अन्य विषयोंका आलम्बन न लेना, यह ध्यानका लक्षण है।
ज्ञानार्णवमें जो एकाग्रचिन्तानिरोधको ध्यान कहा गया है उसका भी यही अभिप्राय है कि प्रत्ययान्तरके संसर्गसे रहित होकर एक ही वस्तुका जो स्थिरतापूर्वक चिन्तन किया जाता है उसका नाम ध्यान है ।
१. ज्ञाना. 1342-14551 २. स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । यो. सू. २-५४ । ३. ज्ञानार्णव 1456-57 । ४. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। यो. सू. ३-१ । (नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूनिः ज्योतिषि नासिकाने
जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा-व्यास भाष्य) ५. ज्ञाना. 1458 व 1467-691 ६. तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । यो. सू. ३-१ । ७. ज्ञाना. 1194-951
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