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ज्ञानार्णवः
योगसूत्र के अनुसार योगका प्रथम अंग यम है । योगसूत्रकारको जो यमका लक्षण अभीष्ट रहा है' वह जैन आगम ग्रन्थोंमें काफी प्रसिद्ध है ।
अंग है । योगसूत्र में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरज्ञानार्णव में परिग्रह व आशाको हेय बतलाते क्रोधादि कषायोंके
२. नियम - यह योगका दूसरा प्रणिधान इनको नियम कहा गया है। छोड़ने और राग-द्वेष- मोह व इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करने इत्यादिका जो स्थान-स्थानपर उपदेश दिया गया है वह सब नियमका ही रूप है । यमका विधान जहाँ सार्वकालिक और सार्वदेशिक है वहाँ नियमका विधान मर्यादित देश - कालसे सम्बद्ध है । जैन सिद्धान्तके अनुसार अणुव्रतों व भोगोपभोग परिमाणका विधान इस नियमके ही अन्तर्गत है ।
आसन - यह तीसरा योगांग है । योगसूत्र में निश्चल व सुखावह आसनको योगका अंग माना गया है । इसके स्पष्टीकरण में भाष्यकारने पद्मासन, भद्रासन, स्वस्तिक व पर्यंक आदि कुछ विशेष आसनों के नामों का निर्देश भी कर दिया है ।
ज्ञानार्णव में ऐसे ही कुछ आसनोंका विधान किया गया है। वहाँ यह विशेष रूपसे कहा गया है कि जहाँ रागादिक दोष हीनताको प्राप्त होते हैं ऐसे ही स्थानमें ध्याताको ध्यानमें स्थित होना चाहिए तथा जिसजिस आसन से स्थित होनेपर मन निश्चल होता है उस उस आसनसे स्थित होकर ध्यान करना योग्य है । सांख्यदर्शनकारका भी यही अभिप्राय रहा दिखता है कि ध्यानमें जिस आसनसे व जहाँ भी मनकी स्थिरता हो सकती है वही आसन व स्थान उपयुक्त है, स्थिर सुख युक्त ही आसन हो, यह कोई नियम नहीं है ।
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४. प्राणायाम - योगसूत्रमें आसनकी स्थिरता के होनेपर जो श्वास और प्रश्वासको गतिका रेचन, स्तम्भन और पूरण क्रियाके द्वारा निरोध किया जाता है उसे प्राणायाम कहा गया है ।
१. अहिंसा - सत्यास्तेय - ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । जाति- देश - काल-समयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम् । ——यो. सू. २, ३०-३१ ॥ २. नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो धियते ।। रत्नक. ८-७; यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिनियमः स्मृतः ।। उपासका ७६१; अहिंसा-सूनृतास्तेय ब्रह्माकिञ्चनता यमाः | दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ द्वात्रि. - ( यशो . ) २१ - २ हिंसाविरदी सच्च अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च । संगविमुत्ती य तहा महव्वया पंच पण्णत्ता ॥ मूला. १-४; एभ्यो हिंसादिभ्यः xxx सर्वतो विरतिर्महाव्रतम् । त. भा. ७-२; पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचः कायैः । कृत-कारितानुमोदैत्यागस्तु महाव्रतं महताम् || रत्न क. ७२ ।
३. शौच - संतोष - तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । यो. सू. २-३२ ।
४. रत्नक. ८७; उपासका ७६१ ।
५. स्थिरसुखमासनम् । यो सू. २-४६; सांख्यद. ३-३४; तद्यथा - पद्मासनं भद्रासनं स्वस्तिकं दण्डासनं सोपाश्रयं पर्यङ्कं क्रौञ्चनिषदनं हस्तिनिषदनमुष्ट्रनिषदनं समसंस्थानं स्थिरसुखं यथासुखं चेत्येवमादीनि । यो. सू. भा. २-४६ ॥
६. ज्ञाना. 1309-14 1
७. स्थिरसुखमासनमिति न नियमः । सां. द. ६ - २४; न स्थाननियमश्चित्तप्रसादात् । ६-३१ ।
८. तस्मिन् सति श्वास-प्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायामः । यो. सू. २-४९ ।
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