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________________ प्रस्तावना यहाँ यह स्मरणीय है कि उपर्युक्त सब ही ग्रन्थोंके रचयिता हेमचन्द्र सूरिके पूर्ववर्ती हैं। हेमचन्द्र सूरिका समय १२-१३वीं शताब्दी है। उनका जन्म कार्तिको पूर्णिमा संवत् ११४५ को और स्वर्गवास संवत् १२२९ में हुआ है। ११. ज्ञानार्णव और योगसूत्र-महर्षि पतञ्जलि विरचित योगसूत्र योगविषयक एक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थ है । वह प्रायः सांख्य सिद्धान्तके आधारसे रचा गया है। वह समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादोंमें विभक्त है। सूत्र संख्या सब १९५ ( ५१ +५५+५५ + ३४ = १९५ ) है। प्रत्येक पादके अन्त में व्यास विरचित भाष्यमें जो पुष्पिकावाक्य पाये जाते हैं उनसे भी यही ज्ञात होता है कि वह सांख्य सिद्धान्तकी प्रमुखतासे रचा गया है। उसके प्रथम पादमें चित्तवृत्तिनिरोधको योगका स्वरूप बतलाकर उसके उपायको दिखलाते हुए प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन वृत्तियोंको क्लिष्ट व अक्लिष्ट दोनों स्वरूप बतलाया है। आगे संप्रज्ञात व असंप्रज्ञात समाधिके साथ ईश्वरके भी स्वरूपको प्रकट किया गया है। दूसरे पादमें क्रियायोगका निर्देश करते हुए हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय इन चारके स्वरूपको प्रकट किया गया है। इसीसे भाष्यकारने उसे चतुर्ग्रह रूप शास्त्र कहा है। साथ ही वहाँ यम-नियमादि आठ योगांगोंका निर्देश करते हए उनमें-से वहाँ प्रथम पाँच योगांगोंका विचार किया गया है। प्रथम यम योगांगके प्रसंगमें अहिंसा आदि पांच महाव्रतोंके स्वरूपको तथा दूसरे नियम योगांगके प्रसंगमें शौच व सन्तोष आदिके स्वरूपको दिखलाते हुए उनके पृथक-पृथक् फलको भी प्रकट किया गया है।। तीसरे पादमें धारणा, ध्यान और समाधि इन शेष तीन योगांगोंके स्वरूपको दिखलाते हुए उन तीनोंके समुदायको संयम कहा गया है। आगे अन्य प्रांसंगिक चर्चा करते हए योगके आश्रयसे होनेवाली विभूतियोंको दिखलाया गया है । ___ चौथे पादमें उपर्युक्त विभूतियोंको जन्म, औषधि, मन्त्र, तप और समाधि इन यथासम्भव पांच निमित्तोंसे उत्पन्न होनेवाली बतलाकर आगे शंका-समाधानपूर्वक कुछ अन्य प्रासंगिक चर्चा करते हुए सत्कार्यवादके साथ परिणामवादको प्रतिष्ठित और विज्ञानाद्वैतका निराकरण किया गया है। विशेष इतना है कि परिणामवादको प्रतिष्ठित करते हुए भी पुरुषको अपरिणामी-चित्स्वरूपसे कूटस्थनित्य-स्वीकार किया गया है । अन्तमें कैवल्यके स्वरूपको प्रकट करते हुए ग्रन्थोंको समाप्त किया गया है। ज्ञानार्णवपर उसका प्रभाव १. यम-प्रस्तुत ज्ञानार्णवकी रचना योगसूत्रप्ररूपित यम-नियमादि आठ योगांगोंको लक्ष्यमें रखकर की गयी है। सर्वप्रथम वहाँ ध्यानको साधनभूत बारह भावनाओं एवं मोक्षके मार्गभूत रत्नत्रयका निरूपण करते हुए सम्यकचारित्रके प्रसंगमें जो अहिंसादि पांच महाव्रतोंकी विस्तारसे प्ररूपणा की गयी है, यह १. कुमारपाल प्रबन्ध ( उ. जिनमण्डन गणि) पृ. ११४ । २. इति पातञ्जले सांख्यप्रवचने योगशास्त्रे श्रीमदव्यासभाष्ये प्रथमः समाधिपादः । यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्म्यहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यां भैषज्यमिति । एवमिदमपि शास्त्रं चतुर्व्यहमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः, प्रधान-पुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः, संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिनिम् हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । यो. सू. भाष्य २-१५ । ( लगभग यही अभिप्राय तत्त्वानुशासनमें श्लोक ३-५ के द्वारा प्रकट किया गया है।) ४. ज्ञानार्णवमें योगसूत्रनिर्दिष्ट इन आठ योगांगोंकी पृ. ३७३ पर सूचना भी की गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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