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________________ ज्ञानार्णवः करनेवाले योगी के समीपमें स्वभावतः परस्पर विरोध रखनेवाले सर्प व न्योले जैसे प्राणी भी जन्मजात वैरभावको छोड़कर साथ-साथ स्थित रहते हैं । ' ५८ ज्ञानार्णवमें अहिंसा के प्रतीक साम्यभावकी महिमाको प्रकट करते हुए कहा गया है कि मुनिके समीप साम्यभावके प्रभावसे स्वभावतः क्रूर भी प्राणी शान्तभावसे स्थित रहते हैं । क्षीणमोह योगी के समक्ष मृगी सिंहके बच्चे को पुत्रके समान स्पर्श करती है । इसी प्रकार गाय व्याघ्रके बच्चेको, बिल्ली हंसके बच्चेको और मोर सर्पको प्रेमके वशीभूत होकर स्पर्श करती है ।' २ योगजन्य विभूतियाँ – योगसूत्र के तीसरे पादमें विषयभेदके अनुसार धारणा, ध्यान और समाधिरूप संयमसे आविर्भूत होनेवाली अनेक प्रकारकी विभूतियोंको दिखलाया गया है । जैसे- धर्मं, लक्षण और अवस्थारूप तीन परिणामविषयक संयमसे - तद्विषयक, धारणा, ध्यान और समाधिसे - योगीको अतीत व अनागतका ज्ञान होता है । जैनदर्शन के अनुसार पूर्वोक्त धर्मं, लक्षण और अवस्थारूप परिणाम उत्पाद, व्यय और धौव्य स्वरूप हैं। यथा- - मिट्टीरूप धर्मीका पिण्डरूप धर्मको छोड़कर घटरूप धर्मको स्वीकार करना, यह उसका धर्मपरिणाम है । उसी घटका अनागत अध्वानको छोड़कर वर्तमान अध्वानको स्वीकार करना, यह उसका लक्षणपरिणाम है । उसी घटका समान क्षणोंमें अन्वर्या स्वरूपसे अवस्थित रहना, यह उसका अवस्थापरिणाम है | ये तीनों परिणाम जिस प्रकार जैनदर्शनके अनुसार चेतन-अचेतन सभी पदार्थोंमें स्वीकार किये गये हैं उसी प्रकार वे योगदर्शन में भी चित्त, भूत और इन्द्रिय आदि सभी पदार्थोंमें स्वीकार किये गये हैं । जैन दर्शनके अनुसार पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क नामक दो शुक्लध्यानोंका विषय उक्त उत्पादादि अवस्थाएँ हैं । उनके ध्यानसे ध्याताके विशिष्ट ज्ञान सम्भव है । इसके अतिरिक्त ज्ञानार्णवमें जो यह कहा गया कि नेत्रयुगल और कर्णयुगल आदि शरीरगत नियमित ध्यानस्थानों में चित्तके स्थिर करनेपर बहुत से ध्यानप्रत्यय उत्पन्न होते हैं, वह योगसूत्रनिर्दिष्ट अतीतअनागत ज्ञान (३-१६), भूतरुतज्ञान - पशु-पक्षी आदि प्राणियोंके विविध शब्दविषयक ज्ञान (३-१७), पूर्वजातिज्ञान - जातिस्मरण ( ३- १८ ) और परचित्तज्ञान - मन:पर्ययज्ञान ( ३- १९ ) इत्यादि विभूतियों ( ऋद्धियों ) का बोधक है । १. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधो वैरत्यागः । यो. सू. २-३५ । ( तस्याहिंसां भावयतः संनिधो सहजविरोधि - नामप्यहि-नकुलादीनां वैरत्यागो निर्मत्सरतयाऽवस्थानं भवति, हिंस्रा अपि हिस्रत्वं परित्यजन्तीत्यर्थःभोजवृत्ति | ) २. ज्ञाना. 1166-72 ३. परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् । यो. सू. ३-१६ । ४. उप्पाय -ट्ठिइ-भंगाइपज्जयाणं जमेगवत्युंमि । नानानयाणुसरणं पुण्वगयसुयानुसारेणं ॥ सवियारमत्थ- वंजण जोगंतरओ तयं पढमसुवक्कं । होइ पुहुत्त वितक्कं सवियारमरागभावस्स || जं पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उपाय - द्वि-भंगा इपाणमेगंमि पज्जाए || अवियारमत्थ- वंजण - जोगंतरओ तयं बिदियसुक्कं । पुव्वगयसुयावलंबण मेगत्तवितक्कमवियारं ॥ ध्यानशतक ७७-८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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