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XXXVI
[ रूपस्थध्यानम् ]
2033 ) आर्हन्त्यमहिमोपेतं सर्वशं परमेश्वरम् ।
ध्यायेद्देवेन्द्रचन्द्रार्कसभान्तःस्थं स्वयंभुवम् ॥१ 2034 ) सर्वातिशयसंपूर्ण दिव्यलक्षणलक्षितम् ।
सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेन्द्रशेखरम् ।।२ 2035 ) सप्तधातुविनिमुक्तं मोक्षलक्ष्मीकटाक्षितम् ।
अनन्तमहिमाधारमयोगिपरमेश्वरम् ।।३
2033) आर्हन्त्य-[ स्वयंभुवं स्वयमेवोत्पन्नं सर्वशं परमेश्वरं ध्यायेत् । पुनः कीदृशम् । आर्हन्त्यमहिम्ना उपेतं युक्तम् । शेषं सुगमम् ।।१॥ पुनस्तमेव वर्णयति ।] .
2034) सर्वातिशय-ब्रह्मचर्याचलमुकुटम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२॥ पुनः कीदृशं तदाह।
2035) सप्तधातु-रुधिरादिसप्तधातुरहितम् । मोक्षलक्ष्मीकटाक्षितम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।३॥ अथ परमेश्वरं स्तौति ।
जो अर्हन्त अवस्थाकी महिमासे-अनन्तचतुष्टयस्वरूप अन्तरंग और समवसरणादिरूप बहिरंग लक्ष्मीसे-सहित, समस्त पदार्थों का ज्ञाता, द्रष्टा तथा इन्द्र, चन्द्र, सूर्यकी सभा (समवसरण ) के मध्यमें स्थित है उस स्वयम्भू-अनादिनिधन-परमेश्वरका ध्यान करना चाहिए । अभिप्राय यह है कि रूपस्थध्यानमें जिस लोकातिशायी आत्मस्वरूपमें जिनेन्द्र अवस्थित हैं उसका योगीको ध्यान करना चाहिए ॥१॥
वह सर्वज्ञ परमेश्वर सब ( चौंतीस ) अतिशयोंसे परिपूर्ण, दिव्य चिह्नोंसे चिह्नित, सब ही प्राणियोंका हित करनेवाला, मोक्षमार्गका प्रणेता, शीलरूप पर्वतराजका शिखरअठारह हजार शीलभेदोंका स्वामी, रस-रुधिरादि सात धातुओंसे रहित, मोक्षलक्ष्मीके कटाक्षोंका विषय-उसके द्वारा अभिलषित, अपरिमित महिमाका आधार, योगसे रहित
१. SJSR आईत्य, T अर्हन्त्य, F अर्हत। २. X देवं च चन्द्रा। ३. L T JX Y R सर्व for दिव्य । ४. All others except P धारं सयोगि ।
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