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________________ -११७ ] 5. ३५. पदस्थध्यानम् 2031 ) निर्मथ्य श्रुतसिन्धुमुन्नतधियः श्रीवीरचन्द्रोदये तत्वान्येव समुद्धरन्ति मुनयो यत्नेन रत्नान्यतः । तान्येतानि हृदि स्फुरन्तु सुभगन्यासानि भव्यात्मनां । ये वाञ्छन्त्यनिशं विमुक्तिललनोवाल्लभ्यसंभावनाम् ॥११६ 2032 ) विलीनाशेषकर्माणं स्फुरन्तमतिनिर्मलम् । स्वं ततः पुरुषाकारं स्वाङ्गगभंगतं स्मरेत् ॥११७ इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे आचार्य-श्री-शुभचन्द्र विरचिते पदस्थध्यानप्रकरणम् ।।३।। 2031) निर्मथ्य-ये अनिशं सततं विमुक्तिललनावाल्लभ्यसंभावनां मुक्तिस्त्रीप्रियत्वं वाञ्छन्ति। तेषां हृदि मनसि एतानि तत्त्वानि स्फुरन्तु समुल्लसन्तु। इति सूत्रार्थः ।।११६|| अथ पुनस्तदेवाह । 2032) विलीनाशेष-स्वं स्मेरत् । कीदृशं स्वम् । विलीनाशेषकर्माणं नष्टाशेषकर्माणम् । स्फुरन्तं दीप्यमानम् । अतिनिर्मलं पुरुषाकारं स्वाङ्गगर्भगतम् । इति सूत्रार्थः ।।११७।। पार्श्वसंज्ञा महाधर्मा टोडरः शुद्धमानसः । ऋषिदासो महाबुद्धिर्जयतीह निरन्तरम् । इत्याशीर्वादः । अथ पुनस्तदाह । इत्याचार्य-श्रीशुभचन्द्रविरचिते ज्ञानार्णवयोगप्रदीपाधिकारे पण्डितनयविलासेन साहपासा-तत्पुत्र-साहटोडर-तत्कुलकमलदिवाकर-साहऋषिदास-स्वश्रवणार्थं पण्डितजिनदासोद्यमेन कारापिते पदस्थध्यानप्रकरणम् ।।३५।। श्री वीर जिनेन्द्ररूप चन्द्रका उदय होनेपर उन्नत बुद्धिके धारक मुनि आगमरूप समुद्रका मन्थन करके उसमें से तत्त्वरूप रत्नोंको ही निकालते हैं। सुन्दर रचनासे परिपूर्ण वे रत्न उन भव्य जीवों के हृदय में प्रकाशमान होते हैं जो निरन्तर मुक्तिरूप कान्ताके पतिप्रेमकी सम्भावनाकी इच्छा किया करते हैं। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार बुद्धिमान मनुष्य समुद्रके भीतरसे उत्तम रत्नोंको निकालकर उनसे बनाये गये सुन्दर हारसे अपने कण्ठको विभूषित किया करते हैं उसी प्रकार निर्मल बुद्धिके धारक योगी श्री वीर जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट समुद्र समान गम्भीर आगमका अभ्यास करके उसमेंसे ध्यानके योग्य अनेक बीजाक्षरों, मन्त्रों और विद्याओंको खोजकर उनसे अपने हृदयको विभूषित करते हैं-उनका ध्यान किया करते हैं ॥११६॥ समस्त कर्मोंसे रहित, देदीप्यमान और अतिशय निर्मल जो पुरुषके आकार आत्मा अपने शरीरके ही भीतर अवस्थित है उसका योगीको स्मरण करना चाहिए ।।११७।। इस प्रकार आचार्य श्री शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव योगप्रदीपाधिकारमें पदस्थध्यानका प्रकरण समाप्त हुआ ॥३५।। २. N वनिता for ललना। ३. All others except १. All others except PM स्फुरन्ति । P संभोगसंभा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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