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________________ ५९८ ज्ञानार्णवः [३३.१५७1852 ) सर्वस्तस्य प्रभावो ऽयमहं येनाद्य दुर्गतः। उद्धृत्य स्थापितः स्वर्गराज्ये त्रिदशवन्दिते ॥१५७ 1853 ) रागादिदहनज्वाला न प्रशाम्यन्ति देहिनाम् । सवृत्तवार्यसंसिक्ताः क्वचिज्जन्मशतैरपि ॥१५८ 1854 ) तन्नात्र सुलभं मन्ये तत्कि कुर्मो ऽधुना वयम् । सुराणां स्वर्गलोके ऽस्मिन् दर्शनस्यैव योग्यता ॥१५९ 1855 ) अतस्तत्त्वार्थश्रद्धा मे श्रेयसी स्वार्थसिद्धये । अहंदेवपदद्वन्द्वे भक्तिश्चात्यन्तनिश्चला ॥१६० ____1852) सर्वस्तस्य-तस्यायं सर्वः प्रभावः । येनाहमद्य दुर्गतेः उद्धृत्य स्थापितः स्वर्गराज्ये । कीदृशे । त्रिदशवन्दिते देवपूजिते । इति सूत्रार्थः ॥१५७॥ अथ पुनरेतदेवाह । __1853) रागादि-देहिनां प्राणिनां रागादिदहनशिखा न प्रशाम्यति । कीदृशी। सद्वृत्तं चारित्रं तदेव वारि जलसमूहः तेन असंसिक्ता। क्वचिज्जन्मशतैरपि। इति सूत्रार्थः ॥१५८|| अथ पुनस्तेषां स्वरूपमाह। _1854) तन्नात्र-अहं मन्ये । अत्र तत्सुलभं न। अधुना वयं तत् कुर्मः। स्वर्गलोके ऽस्मिन् सुराणां दर्शनस्यैव योग्यता वर्तते । इति सूत्रार्थः ॥१५९॥ अथ कर्तव्यतामाह । 1855) अतस्तत्वार्थ-अतः कारणात् मे मम तत्त्वार्थश्रद्धा स्वार्थसिद्धये श्रेयसी प्रधाना। च पुनः । अर्हदेवपदद्वन्द्वे जिनपादयुग्मे । अत्यन्तनिश्चला भक्तिरिति सूत्रार्थः ॥१६०॥ अथ पुनरर्हबिम्बानि पूज्यानीत्याह । परमात्माका भी आराधन किया है, विषयरूप वनको भस्म किया है, कामरूप शत्रुको मार गिराया है, कषायरूप वृक्षोंको नष्ट किया है, तथा रागरूप शत्रुको जो अपने वशमें किया है उसी सबका यह प्रभाव है कि जिसने मुझे दुर्गतिसे बचाकर आज देवोंसे वन्दित इस स्वर्गके राज्यमें-इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित किया है ॥१५४-५७॥ प्राणियोंकी रागादिरूप अग्निकी ज्वाला-विषयतृष्णा-जबतक समीचीन चारित्ररूप जलके द्वारा नहीं सींची जाती है तब तक वह सैकड़ों जन्मोंसे भी कहीं शान्त नहीं हो सकती है ॥१५८॥ वह समीचीन चारित्र यहाँपर सुलभ नहीं है, यह मैं जानता हूँ। इसलिए अब हम क्या करें । यहाँ देवोंके इस स्वर्गलोकमें एकमात्र सम्यग्दर्शन की ही योग्यता है ।।१५९।। इसलिए अपने प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिए यहाँ मुझे जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान (सम्यग्दर्शन ) और अर्हन्त भगवानके चरण-कमलमें अतिशय दृढ़ भक्ति ही हितकर है ॥१६०॥ १.SJX Y R स्थापितं । २. J स्वर्गे । amanandnahana Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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