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________________ -१३०] ३३. संस्थानविचयः ५९१ 1821 ) किंचिद्भ्रममपाकृत्य वीक्षन्ते' सरलैः शनैः । ___ यावदाशा मुहुः स्निग्धैस्तदा कर्णान्तलोचनैः ॥१२७ 1822 ) इन्द्रजालमथ स्वप्नः किं नु माया भ्रमो नु किम् । दृश्यमानमिदं चित्रं नायाति' मम निश्चयम् ॥१२८ 1823 ) इदं रम्यमिदं सेव्यमिदं श्लाघ्यमिदं हितम् । इदं प्रियमिदं भव्यमिदं चित्तप्रसतिंदम् ।।१२९ 1824 ) एतत्कन्दलितानन्दमेतत्कल्याणमन्दिरम् । एतन्नित्योत्सवाकीर्णमेतदत्यन्तसुन्दरम् ॥१३० 1821) किंचिभ्रमम्-ते वीक्ष्यन्ते" शनैः शनैः । किं कृत्वा। किंचिद् भ्रमम् अपाकृत्य दूरीकृत्य । यावद् आशा ककुप् कर्णान्तलोचनैः तदा स्निग्धैः वीक्ष्यते । इति सूत्रार्थः ॥१२७॥ अथ पुनस्तेषां जन्मान्तरचिन्तामाह । 1822) इन्द्रजालम् -मम निश्चयं न याति चित्रं दृश्यमानम् । कीदृशम् । इन्द्रजालम् इदम् । अथवा स्वप्नः । नु वितर्के। किं नु माया भ्रमः । इति सूत्रार्थः ।।१२८॥ अथ पुनस्तदेवाह । 1823) इदं रम्यम् -तेषां स्वोत्पत्त्यनन्तरं स्वर्ग दृष्ट्वा चिन्तयन्ति । सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१२९।। [ पुनस्तदेव विशेषयति । .. ___1824) एतत्कन्दलितानन्दम्-कन्दलितानन्दम् आनन्दस्य मूलभूतम् । नित्योत्सवाकीर्ण नित्योत्सवैाप्तम् । अन्यत्सुगमम् ॥१३०।। ] अथ इन्द्रसभाजिरमाह । प्रबोधित किये जाते हैं। उसी प्रकार स्वर्गमें उपपादशय्यापर उत्पन्न हुए उन देवोंको गीत व वादित्रोंके शब्दोंके साथ स्तुति करनेवाले अन्य देवोंके द्वारा प्रबोधित किया जाता है ।।१२६।। तब वे देव धीरे-धीरे कानोंपर्यन्त विस्तृत, सरल व स्नेहपूर्ण नेत्रोंके द्वारा बार-बार दिशाओंका अवलोकन करते हैं ॥१२७॥ उस समय वे विचार करते हैं क्या यह इन्द्रजाल है, अथवा क्या स्वप्न है, या माया है, अथवा क्या भ्रान्ति है ? इस सामने दिखते हुए चित्रके विषयमें मुझे कुछ निश्चय नहीं हो रहा है ॥१२८।। ___ यह रमणीय है, यह सेवनीय है, यह प्रशंसनीय है, यह हितकर है, यह प्रिय है, यह सुन्दर है, यह चित्तको प्रसन्न करनेवाला है, यह आनन्दको अंकुरित करनेवाला है, यह कल्याणका स्थान है, यह निरन्तर उत्सवोंसे परिपूर्ण है और यह अतिशय सुन्दर प्रतीत होता है ॥१२९-३०॥ १. M LS वीक्ष्यते, N T X R वीक्षते, FJY वीक्षन्ते । २. LSX R स शनैः, T 'तेत्राशनैः, Jऽथ शनैः for सरलैः । ३. M N J न याति मम, Ls FX Y R मम नायाति । ४. J प्रशान्तिदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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