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________________ ५० ज्ञानार्णवः पूर्ण स्वर में पूछा गया है तो पूर्व व्यक्तिको विजयको कहते हैं, और यदि रिक्त स्वरमें प्रश्न किया गया है तो दूसरे व्यक्तिको विजयका निर्देश करते हैं । योगशास्त्रमें भी इस प्रसंगको लिया गया है तथा वहाँ इसको ज्ञानार्णवको अपेक्षा अधिक स्पष्ट भी किया है। यथा पूर्णे पूर्वस्य जयो रिक्त त्वितरस्य कथ्यते तज्ज्ञः। उभयोयुद्धनिमित्त दूतेनाशंसिते प्रश्ने ॥ ज्ञानार्णव को जेष्यति द्वयोर्युद्ध इति पृच्छत्यवस्थितः।। जयः पूर्वस्य पूर्णे स्याद् रिक्त स्यादितरस्य तु ॥ यो. शा. २-२२५ । उक्त दोनों श्लोकोंको देखकर यह भलीभांति समझा जा सकता है कि योगशास्त्रगत उस श्लोकमें जितने सरल और सुबोध पदोंके द्वारा उक्त प्रश्न और उत्तरकी सूचना की गयी है उतने झटिति बोध करानेवाले शब्दोंका उपयोग ज्ञानार्णवमें नहीं किया गया । इसके अतिरिक्त योगशास्त्रमें उक्त श्लोकके अनन्तर रिक्त और पूर्णके लक्षणको इस प्रकार व्यक्त कर दिया गया है यत् त्यजेत् संचरन् वायुस्तद रिक्तमभिधीयते। संक्रमेद् यत्र तु स्थाने तत् पूर्ण कथितं बुधैः ।। यो. शा. ५, २२६ । ज्ञानार्णवमें भी यद्यपि प्रकृत रिक्त और पूर्णके लक्षणका निर्देश किया गया है पर यहाँ, जहाँ उसकी आवश्यकता थी, उसका कुछ भी निर्देश न करके आगे श्लोक 1424 में उनके लक्षणको प्रकट किया गया है, जहाँ उसका प्रसंग भी नहीं है। इस श्लोकमें भी पूर्वार्धका उत्तरार्धसे सम्बन्ध बैठाना कष्टप्रद है ( देखिए पृ. ४७८, श्लोक ११४)। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि हेमचन्द्र सूरिके समक्ष ज्ञानार्णवके ऐसे कुछ दुरूह प्रसंग रहे हैं जिन्हें उन्होंने अपने योगशास्त्रमें सरल व सुबोध बनाया है। ४. ज्ञानार्णवमें श्लोक 1452 के द्वारा यह निर्देश किया गया है कि इस परपुरप्रवेशका फल कौतुक मात्र है। वह कठोर परिश्रमके द्वारा समयानुसार महापुरुषों के भी किसी प्रकारसे सिद्ध होता है और कदाचित नहीं भी सिद्ध होता है। इसी अभिप्रायको व्यक्त करते हुए योगशास्त्र में यह कहा गया है कि वह परपुरप्रवेश आश्चर्य मात्रका करनेवाला है। वह परिश्रमके द्वारा दीर्घकालमें कदाचित ही सिद्ध होता है व कदाचित नहीं भी सिद्ध होता है। ये दोनों श्लोक ये हैं कौतुकमात्रफलोऽयं पुरप्रवेशो महाप्रयासेन । सिध्यति न वा कथंचिन्महतामपि कालयोगेन । ज्ञाना. इह चायं परपुरप्रवेशश्चिन्नमात्रकृत् । सिध्येन्न वा प्रयासेन कालेन महताऽपि हि ॥ यो. शा. ६-१ इन दोनों श्लोकोंमें अधिकांश शब्दोंके समान होनेपर भी थोड़ा-सा जो परिवर्तन हुआ है उससे अभिप्रायमें भी कुछ भिन्नता हो गयी है। परिवर्तन जो हुआ है वह 'महतामपि' के स्थानमें 'महताऽपि' पाठका हआ है। तदनुसार ज्ञानार्णवमें जहां उसका अर्थ 'महापुरुषोंके भी' ऐसा होता है वहाँ योगशास्त्रमें उसका अर्थ 'दीर्घ कालके द्वारा भी' ऐसा होता है। इस प्रकार इस पाठभेदमें ज्ञानार्णवको अपेक्षा योगशास्त्रका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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